पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/७४

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आर्यजातिका सूक्ष्म शिल्प।
 

सौन्दर्यका साधन धनके बिना हो नहीं सकता। बहुतोंके पास किसी तरह गिरिस्ती चलानेके लिए भी यथेष्ट धन नहीं है । उसपर सामाजिक- ताके कारण पहले स्त्रियोंके गहने गढ़ाकर तिथि-त्योहारमें मा-बापकी बर्सी, चौबर्सी और श्राद्ध आदि कृत्योंमें और पुत्र-कन्याके ब्याहमें बित्तबाहर खर्च करना पड़ता है। चाहे शूकरशालाके समान तंग और गन्दी जगहमें रहना पडे. पर इन बातोंमें रत्तीभर कमी नहीं हो सकती। यही सामाजिक रीति है । इच्छा होनेपर भी समाज-श्रृंखलामें बँधा हुआ हिन्दू इस रीतिके विपरीत आचरण नहीं कर सकता। कुछ दोष हिन्दूधर्मका भी है। जिस धर्मके अनुसार कीमती संगमर्मरके फर्शवाले मकानको भी गोबर लीपकर साफ बनानेकी रीति है, उस धर्मकी कृपासे सूक्ष्मशिल्पकी दुर्दशा होना ही सर्वथा संभव है।

यह सब स्वीकार कर लेनेपर भी हम दोषसे बच नहीं सकते। जो अँगरेज क्लर्की करके किसी तरह सौ रुपये महीनेमें गुजर करता है उसके साथ, घरकी सजावट और सफाईके बारेमें सालमें २०,००० ) रुपये मुनाफेके पानेवाले दे- हाती जमींदारकी तुलना करो । देखोगे कि वह भेद बहुत कुछ स्वाभाविक सा है । दो चार धनाढ्य बाबू अँगरेजोंका अनुकरण करके अँगरेजोंकी तरह घर वगैरहकी सजावट किया करते हैं और भास्कर्य तथा चित्र आदिके द्वारा घरको सजाते हैं । हिन्दुस्तानी नकल-नवीस अच्छे होते हैं। उनके अनुकरणमें शिथिलता जरा भी नहीं देख पड़ती। किन्तु उनका भास्कर्य और चित्रोंका संग्रह देखनेसे ही जान पड़ता है कि अनुकरणकी स्पृहासे ही उन्होंने वह संग्रह किया है। नहीं तो सौन्दर्यके प्रति उनका आन्तरिक अनुराग नहीं है । यहाँ भले-बुरेका विचार नहीं है, मँहगी चीज होनी चाहिए। सजावटकी निपुणता नहीं है, सामग्री संख्यामें अधिक होनी चाहिए। भास्कर्य और चित्रोंको जाने दीजिए। काव्यके सम्बन्धमें भी हिन्दुस्थानियोंमें उत्तम अधमके विचारकी शक्ति नहीं देख पड़ती। इस विषयमें यहाँके सुशिक्षित और अशिक्षित समान हैं । दोनोंमें बहुत थोड़ा भेद है । नृत्य और गीतकी विद्या तो शायद हिन्दुस्तानसे उठ ही गई है । सौन्दर्यके विचारनेकी शक्ति, सौन्दर्य-रसके आस्वादनका सुख, शायद विधाताने इस देशके लोगोंके भाग्यमें नहीं लिखा।

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