पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/७९

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बंकिम-निबन्धावली—
 

प्रकृतिके नियमके अनुसार इसका एक और विचित्र फल होता है। शब्द और चेहरेका ढंग, दोनों ही शोकके चिह्न होनेके कारण परस्पर एक दूसरेकी याद दिलाते हैं। वैसी क्रन्दनध्वनि सुन पड़ते ही वैसा चेहरा याद आ जाता है। वैसा चेहरा देखते ही वैसी क्रन्दन-ध्वनि स्मरण हो आती है। इस प्रकार वारम्वार दोनोंके एक साथ याद आनेके कारण दोनों ही दोनोंकी प्रतिमा बन जाते हैं। वह शोकसूचक चेहरा उस शोकसूचक ध्वनिकी साकार प्रतिमा जान पड़ता है।

ध्वनि और मूर्तिके इस परस्पर सम्बन्धके अवलम्बनसे ही प्राचीन लोगोंने राग-रागिणियोंकी साकार कल्पना करके, उनके ध्यानोंकी रचना की है। उन ध्यानोंसे प्राचीन आर्योंकी विचित्र कवित्वशक्ति और कल्पनाशक्तिका परिचय प्राप्त होता है। हम लोग पूर्वपुरुषोंकी कीर्तिकी जितनी आलोचना करते हैं, उतना ही उनकी महानुभावताको देखकर विस्मित होते हैं।

दो एक उदाहरण दिये जाते हैं। अनेक लोगोंने टोड़ी रागिनी सुनी होगी। सहृदय पुरुष उसे सुनकर जिस एक अनिर्वचनीय भावमें मग्न हो जाते हैं, वह सहजमें व्यक्त नहीं किया जा सकता। साधारणतः जिसे 'आवेश' कहते हैं वह इस भावका एक अंशमात्र है—किन्तु एक अंशमात्र ही है। उसके साथ भोगकी अभिलाषा भी मानो सम्मिलित है । वह भोगकी अभिलाषा नीच-प्रवृत्ति नहीं है। जो भोग निर्मल और सुख देनेवाला है, जिसको अन्यजनकी अपेक्षा नहीं है, जो केवल आध्यात्मिक है, उसी भोगकी अभिलाषा । किन्तु उस भोगकी अभिलाषाकी सीमा नहीं है, तृप्ति नहीं है। उसमें न निरोध है और न शासन है। भोग और भोगसुख-अभिलाषा लोटपोट हो जाती है। आकांक्षा बढ़ उठती है। प्राचीन लोगोंने इस टोड़ी

रागिणीकी मूर्तिकी इस प्रकार कल्पना की है कि वह परमसुन्दरी युवती, वस्त्र-अलंकारसे आभूषित, किन्तु विरहिणी है । आकांक्षाकी निवृत्ति न होनेके कारण ही वह विरहिणी कल्पित हुई है। यह विरहिणी सुन्दरी वनविहारिणी है। वनमें, एकान्तमें, अकेले बैठकर मद्यपानसे उन्मत्तसी हो रही है। वीणा बजाकर गा रही है। उसके वस्त्राभूषण अपने अपने स्थानसे गिरेसे पड़ते हैं । वनकी हरिणियाँ उसके आगे आकर चुपचाप खड़ी हुई हैं।

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