पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/९०

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भारत-कलंक।
 

हम यह भी नहीं कहते कि आधुनिक भारतवर्षके लोग बिल्कुल ही कायर या नामर्द हैं और इसी लिए इतने दिनोंसे पराधीन हैं। इस पराधीनताके और ही कारण हैं । हम उनमेंसे इस जगहपर दो कारणोंका विस्तारके साथ वर्णन करेंगे।

एक तो यह कि यहाँके लोगोंमें स्वभावसे ही स्वाधीनताकी आकांक्षा नहीं है। ऐसा खयाल भारतवर्षके लोगोंके मनमें आता ही नहीं कि अपने देश और अपनी जातिके लोग हमपर शासन करें, हम विदेशीय, विजातीय लोगोंके शासनके अधीन क्यों रहे? यह बात यहाँके लोगोंके हृदयसे मेल ही नहीं खाती कि अपनी जातिके राजाका शासन मंगलकर या सुखका आकर है आरै विजातीय राजाका दण्ड पीड़ादायक अपमानका कारण है। उन्हें यह बोध तो है कि परतन्त्रताकी अपेक्षा स्वतन्त्रता अच्छी है। किन्तु वह बोध मात्र है। वह ज्ञान आकांक्षामें परिणत नहीं है। अनेक वस्तुओंके सम्बन्धमें हमारा यह ज्ञान हो सकता है कि वे अच्छी हैं। किन्तु उस ज्ञानसे उन सभी वस्तुओंके प्रति हमारे हृदयमें आकांक्षा नहीं उत्पन्न होती। हरिश्चन्द्रके दानीपन और कार्शियसके देशवात्सल्यकी प्रशंसा कौन नहीं करता? किन्तु उनमेंसे कितने हरिश्चन्द्रकी तरह सर्वस्व त्यागने या कार्शियसकी तरह आत्मघात करनेके लिए प्रस्तुत होंगे? प्राचीन या आधुनिक यरोपकी जातियोंके लोगोंमें स्वातन्त्र्यप्रियता प्रबल आकांक्षाके रूपमें परिणत देख पड़ती है।उनका विश्वास है कि स्वतन्त्रता छोड़नेके पहले सर्वस्व और प्राण तकका त्याग कर्तव्य है। किन्तु हिन्दुओंमें यह बात नहीं है। वे समझते हैं कि “ जिसकी इच्छा हो वह राज्य करे, हमारा क्या ? चाहे अपनी जातिका हो और चाहे दूसरी जातिका, दोनों राजा समान हैं। चाहे स्वजातीय हो और चाहे विजातीय, सुशासन करनेसे दोनों समान हैं। इसका क्या ठीक कि स्वजातीय राजा सुशासन करेगा और विजातीय राजा सुशासन न करेगा ? यदि इसका निश्चय नहीं है तो फिर हम स्वजातीय राजाके लिए क्यों जान दें ? राज्य राजाकी सम्पत्ति है। वह उसे अपने अधिकारमें रख सके तो रक्खे । हमारे लिए स्वजातीय विजातीय दोनों समान हैं । कोई हमारी आयसे छहा हिस्सा 'कर' लेनेमें एक कौड़ीकी रिआयत न

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