पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/९३

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बंकिम-निबन्धावली—
 

परिश्रमसे अधिक अवकाश मिलनेपर सहजमें ही मनकी गति आभ्यन्तरिक होती है। ध्यान और चिन्तनकी अधिकता होती है। उसका एक फल कवित्व और जगतके तत्त्वोंमें पाण्डित्य है। इसी कारण हिन्दूलोग थोड़े ही समयमें अद्वितीय कवि और दार्शनिक हो गये हैं। किन्तु मनकी आभ्यन्त- रिक गतिका दूसरा फल बाह्य सुखोंके प्रति आस्थाका न होना है। बाह्य सुखोंके प्रति आस्था न होनेसे निश्चेष्टभाव आ जाता है। स्वतन्त्रताके प्रति आस्थाका न होना इस स्वाभाविक निश्चेष्टताका एक अंशमात्र है। आर्योंके धर्मतत्त्व और दर्शनशास्त्रमें यह चेष्टाहीनताका भाव सर्वत्र विद्यमान है। क्या वैदिक, क्या बौद्ध, क्या पौराणिक, सभी धर्म इसी निश्चेष्टताकी संवर्द्ध- नासे परिपूर्ण हैं। वेदसे वेदान्त, सांख्य आदि दर्शनोंकी उत्पत्ति हुई है। उनके अनुसार लय या भोगकी निवृत्ति ही मोक्ष है—निष्काम भाव ही पुण्य है। बौद्धधर्मका निर्वाण ही मुक्ति है।

अब प्रश्न यह हो सकता है कि यदि हिन्दूजाति सदासे स्वतन्त्रताका आदर करना नहीं जानती, तो यहाँ मुसलमानोंकी अमलदारी होनेके पहले साढ़े पाँच हजार वर्षतक उन्होंने क्यों यत्नपूर्वक विजातियोंको विमुख करके स्वाधीनताकी रक्षा की? विजातीय लोग कभी सहजमें यहाँसे हटे न होंगे— बड़ी मुश्किलसे यह काम हुआ होगा। जिस सुखके प्रति आस्था न थी, उसके लिए हिन्दू-समाजने इतना कष्ट क्यों स्वीकार किया था ?

इसका उत्तर यह है कि इसका प्रमाण कहीं नहीं मिलता कि हिन्दू-समा-जने कभी शक यवन आदिको विमुख करनेके लिए विशेष यत्न किया था। हिन्दू नरपतियोंने अपनी राज्य-सम्पत्तिकी रक्षाके लिए यत किया था। उनकी संग्रह की हुई सेना युद्ध करती थी; जब हो सकता था, शत्रुको विमुख करती थी। इसीसे देशकी स्वतन्त्रताकी रक्षा होती थी। इसके सिवा इस बातका कोई प्रमाण नहीं मिलता कि “ हम अपने देशमें विदेशीय राजा न होने देंगे" यह विचार कर साधारण लोगोंने कभी उद्योग किया हो या उत्साह दिखाया हो । बल्कि इसके विरुद्ध होना ही यथार्थ जान पड़ता है। जब समर-लक्ष्मीकी कोपदृष्टिके प्रभावसे हिन्दू राजा या हिन्दू सेनापति

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