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बंकिम निबन्धावली—
 

और मुसलमान दो जातियाँ हो गई। हिन्दू, मुसलमान, मुगल, पठान, राजपूत, महाराष्ट्र एकत्र काम करने लगे। तब जातिमें एका कैसे रहता? एकेका ज्ञान किस तरह रहता?

इस प्रकार भारतवर्षमें अनेक जातियाँ हो गईं। निवासस्थानके भेदसे, भाषाके भेदसे, वंशके भेदसे, धर्मके भेदसे अनेक जातियाँ हो गई। बंगाली, पंजाबी, मराठे, राजपूत, जाट, हिन्दू, मुसलमान, इनमें कौन किसके साथ एका करता? धर्मका मेल है तो वंशका मेल नहीं है, वंशका मेल है तो भाषाका मेल नहीं है, भाषाका मेल है तो निवासस्थानका मेल नहीं है। राजपूतों और जाटोंका एक धर्म है, तो भिन्न वंशमें उत्पत्ति होनेके कारण वे भिन्नजातीय हैं। बंगाली और बिहारी अगर एक वंशके हैं, तो उनकी भाषायें भिन्न हैं। केवल यही नहीं है। भारतका ऐसा भाग्य है कि जहाँ किसी प्रदेशके लोग सब बातोंमें एक हैं—जिनका धर्म, भाषा, जाति, देश सब एक है—वहाँ उनमें भी जातिकी एकताका ज्ञान नहीं है। बंगा- लियोंमें बंगाली जातिकी एकताका बोध नहीं है, सिखोंमें सिखजातिकी एकताका बोध नहीं है। इसका भी विशेष कारण है। बहुत समयतक भिन्न जातियाँ जब एक बड़े साम्राज्यके बीचमें रहती हैं, तब क्रमशः जाति-ज्ञान या जातीयताका भाव लुप्त हो जाता है । भिन्न भिन्न नदियोंकी जल-राशि जब समुद्र में आकर मिल जाती है, तब उसमें यह नहीं जाना जा सकता कि अमुक नदीका अमुक जल है। वैसे ही बृहत् साम्राज्यके अन्तर्गत भिन्नजातियोंका भी वही हाल होता है। उनका अलगाव जाता रहता है, किन्तु ऐक्य नहीं उत्पन्न होता। रोमन साम्राज्यके भीतर आई हुई जातियोंकी ऐसी ही दशा हुई थी। हिन्दुओंकी भी वही दशा हुई है। भारतवर्षमें अनेक कारणोंसे बहुत दिनोंसे जाति-प्रतिष्ठा उठ गई है। जाति-प्रतिष्ठाके उठ जानेके कारण ही कभी हिन्दू समाजके द्वारा किसी जातीय कार्यका संपादन नहीं हुआ। जाति-प्रतिष्ठा उठ जानेके कारण ही हिन्दुओंके राज्यासनपर बिना आपत्तिके हिन्दू-समाजने सब जातिके राजाओंको विठा लिया है। इसी कारण हिन्दू समाजने कभी स्वतन्त्रताकी रक्षा करनेके लिए उँगली भी नहीं उठाई।

इतिहासमें उल्लिखित समयके बीच केवल दो बार हिन्दू समाजमें जाति-प्रतिष्ठाका उदय होते देखा गया है। एक बार महाराष्ट्रप्रदेशमें

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