पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१३५

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बगुला के पंख १३३ 'अच्छी बात हैं। हकीकत तो यह है, ऐसा अच्छा खाना मैंने बहुत दिन से नहीं खाया था । भई राधेमोहन, तुम हो बड़े खुशकिस्मत । बड़ी अच्छी बीवी पाई है।' यही तो बात थी जिसे राधेमोहन सुनना चाहता था। उसने हंसकर कहा, 'अफसोस यही है कि मैं उसके योग्य नहीं हूं। असल में तो उसे किसी राजा- नवाब के घर जाना चाहिए था ।' इसी समय' गोमती आधा चूंघट निकाले धीरे-धीरे वहां आई । जुगनू ने खड़े होकर कहा, 'नमस्ते भाभीजी, खाना तो आपने ऐसा खिलाया कि तबियत होती है अब मांगकर फिर निमन्त्रण लूं। बहुत दिन से ऐसा स्वादिष्ट खाना नहीं खाया था।' राधेमोहन ने वीच ही में उत्साहित होकर कहा, 'मूंग की दाल का हलुमा तो इनके जैसा कोई बना ही नहीं सकता।' 'वाकई लाजवाब था । भाभी, अब आप कब बुला रही हैं मुझे हलुआ खाने को ?' 'जब चाहे आइए।' गोमती ने ज़रा शर्माते हुए मुस्कराकर कहा । 'अच्छी बात है । जब चाहूंगा तभी आ जाऊंगा । लेकिन भाई राधेमोहन, तुम तो जानते ही हो, मेरे पीछे यह म्युनिसिपैलिटी का बड़ा ववाल लगा है। पलक मारने की फुर्सत नहीं मिलती।' गोमती ने भी चुप बैठना ठीक नहीं समझा। उसने कहा, 'आप उन्हें नहीं लाए ?' जुगनू ठहाका मारकर हंस दिया। राधेमोहन ने तनिक रसिकता से कहा, 'अभी मुंशीजी का ब्याह कहां हुअा है ?' गोमती को यह कुछ अजीब-सा लगा। इतनी उम्र तक कुंवारा रहना उसकी दृष्टि में अजीब-सी बात थी। परन्तु उसने कुछ जवाब नहीं दिया। तनिक मुस्कराकर रह गई । प्राधा-सा चूंघट, लाज से जड़ीभूत शरीर, अविकसित बुद्धि, अल्हड़-सा व्यवहार, गदराया हुआ उभारदार यौवन—यह सब देखकर जुगनू की वासना भड़क उठी। मूर्ख राधेमोहन की उपस्थिति उसे नगण्य-सी लगी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, यह अरक्षित माल है और अनायास ही इसका गफ्फा बनाया जा सकता है। उसने प्यासी चितवनों से गोमती को देखा। एक