पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१४४

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१४२ बगुला के पंख लज्जा, था। उसका शरीर भरा-भरा, चेहरा गोल, नाक-नक्श सलोने और सीना उभार- दार था । स्वस्थता की चमक उसके गालों पर थी। यत्किचित् मोटे होंठ और नाक के ज़रा फूले हुए नथने उसकी विलासी प्रकृति को व्यक्त करते थे- परन्तु उसमें न विचारों की उच्चता थी, न साहस । वह एक पिंजरे में बन्द पालतू कबूतरी थी। पिंजरे के बाहर भी एक संसार है इसका उसे ज्ञान न था। मर्द के नाम पर उसने केवल अपने पति को देखा था। पर उसके पति में मर्द का कोई लक्षण ही न था। न वह कठोर था न दृढ़। उसमें स्त्रियोचित कोमलता और प्रेम का बाहुल्य था । उम्र अभी उसकी भी कच्ची ही थी। स्त्री के नाम पर उसने भी अभी केवल गोमती ही को जाना-माना था। और वह उसमें इस कदर डूबा हुआ था, कि दुनिया में कोई और भी औरत है, इसे देखने की उसे फुर्सत ही नहीं थी। कल्पना उसके जीवन में बहुत थी। साहित्य' में, कविता में, तो कल्पना बहुत काम देती है, पर जीवन में कल्पना का मूल्य कानी कौड़ी के बराबर भी नहीं होता । जीवन तो एक ठोस सत्य है । पर इस गम्भीर रहस्य' को भला वह तरुण क्या जानता था ! वह उच्च शिक्षित भी न था । यद्यपि उसने बी० ए० तक शिक्षा पाई थी पर यह कोरी शिक्षा ही थी, उससे उसके मन का कोई परिष्कार नहीं हुआ था। अतः न तो उसमें संसार में रहने की कोई योग्यता ही थी न अनुभव । इस प्रकार के दयनीय' मूर्ख तरुण-जैसा राधेमोहन था-दुनिया में बहुत हैं । वे सब अपने जीवन में ठोकरें खाते और गिरते-पड़ते ही उम्र काटा करते हैं । उन्हें न जीवन का श्रेय प्राप्त होता है न' उत्कर्ष । भले ही वे उच्च कोटि के शिक्षित या धनी हो जाएं । जुगनू की उस दावत के बाद इन दोनों पति-पत्नी में एक गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया। राधेमोहन कहता था, 'तुमने तो उसके सामने अपनी मूर्खता का प्रदर्शन किया, मेरी वड़ी भद्द हुई। मैंने तुम्हारी उससे बड़ी-बड़ी तारीफें की थी। मुझे कितना शर्मिन्दा होना पड़ा।' जवाब में गोमती कहती, 'बेवकूफ मैं नहीं, तुम हो । क्या ज़रूरत है कि औरत पराये मर्द के सामने आए, हंसी-ठिठोली करे । तुम्हारे वे दोस्त हैं, तुमने दावत दी, चलो ठीक हुआ, पर मैं भी उसकी हाज़िरी बजाऊं,. इसकी क्या ज़रूरत है ?'.