पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१४५

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बगुला के पंख १४३ 'बहुत ज़रूरत है। आजकल के ज़माने में पढ़ी-लिखी औरतें परदे में नहीं रहतीं। सबसे मिलती, बात करती हैं। जो ऐसा नहीं करतीं वे सोशल नहीं कहलातीं। वे जाहिल होती हैं।' 'तो मैं ज़ाहिल ही अच्छी।' 'मेरे साथ रहकर तुम जाहिल नहीं रह सकतीं।' 'तो क्या मैं दुनिया के सामने नाचूं ।' 'नाचना-गाना भी कला है। तुम्हें वह भी सीखना चाहिए। आजकल तो नाचना-गाना दहेज से भी बढ़कर ज़रूरा हो गया है। जो लड़की नाचना-गाना नहीं जानती उसका ब्याह नहीं होता।' 'खैर, तो अब मुझे ब्याह नहीं करना है। मेरा ब्याह हो चुका।' 'पर तुमको मेरी इज़्ज़त का ख्याल रखना ज़रूरी है।' 'पराये मर्दो के साथ तुम्हारी औरत बेहया बनकर हंसी-ठिठोली करे यही तुम्हारी इज़्ज़त है ? कोई मर्द इस बात को पसन्द नहीं कर सकता।' 'इतनी बड़े घरों का औरतें हैं, सबसे मिलती हैं। सभा-सोसाइटी में जाती हैं---उनके आदमी मर्द नहीं हैं ?' 'हां । नहीं हैं। सब नामर्द हैं।' 'तो तुम मुझे भा नामर्द ही समझती होगी ?' 'तुम तो नामर्द हो ही।' 'क्या पिटना चाहती है ?' 'औरत को पीटने से ही क्या तुम मर्द बन जाओगे ?' 'कहता हूं, मुझे गुस्सा न दिला।' 'कहती हूं, ज़रा गुस्सा करो। मर्द नहीं तो मर्द की गैरत ही शायद तुममें पैदा हो जाए।' राधेमोहन को जवाब नहीं सूझा । वह जोर-ज़ोर से सांस लेते हुए और मुट्ठियां भींचे हुए तेज़ी से घर से बाहर निकल गया। गोमती का घर बहुत छोटा था, एक छोटा-सा सोने का कमरा, जो दिन में बैठक का काम भी देता था, एक रसोईघर, और ज़रा-सा सहन । सहन में और किरायेदारों का भी हिस्सा था। वह चींटी की भांति अपनी घर-गिरस्ती में लगी रहती थी। घर की झाड़-बुहार, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, सीना,