पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१६६

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१६४ बगुला के पंख परन्तु ये सब बातें तो वे ही करते हैं।' शारदा ने लजाते हुए कहा। 'नहीं, तुम समझदार हो, पढ़ी-लिखी हो । तुम्हें खुद सोचना चाहिए।' कुछ रुककर उसने कहा, 'एक बात कहूं शारदा, तुम मुझे प्यार करती हो ?' अकस्मात् शारदा ने जुगनू के मुंह की ओर देखा । जुगनू ने फिर कसकर शारदा का हाथ पकड़ लिया, और कहा, 'शारदा प्यारी, मैं तुम्हें प्यार करता हूं, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।' शारदा का मुंह भय से पीला पड़ गया। एक बार वह कांप उठी, उसने झटका देकर हाथ छुड़ाते हुए कहा, 'छोड़ दो, कोई देख लेगा।' और हाथ छुड़ाकर वह तेज़ी से चली गईं। जुगनू का उपहार वह फाउण्टेन पैन उसके हाथ में से छूटकर धरती पर गिर गया। जुगनू भी वहां से तुरन्त चल दिया। उसे न पार्टी के दूसरे संगी-साथियों का ध्यान रहा न और किसी बात का होश-हवास । वह सबसे पृथक् पैदल ही दिल्ली की ओर पागल आदमी की भांति लड़खड़ाते हुए पैर रखता चला जा रहा था । जुगनू का यह अप्रत्याशित प्रणय-निवेदन एकबारगी ही शारदा को आहत कर गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे उसका अमल-धवल कौमार्य अकस्मात् ही मैला हो गया । एक प्रकार की भीति, घृणा, क्षोभ और क्रोध से वह अभिभूत हो उठी। अब वह यद्यपि बीस से भी अधिक आयु की तरुणी थी, परन्तु अभी तक शैशव ही उसके तन-मन में खेल रहा था। उसका लालन-पालन स्वस्थ वातावरण में हुआ था। सुसंस्कृत परिवार की वह लड़की थी। अब तक उसकी सम्पूर्ण चेतना ज्ञानार्जन' में संलग्न' थी। मनोविज्ञान और इतिहास उसके प्रिय विषय थे। साहित्य में उसकी आसक्ति थी। उसे पता ही नहीं था कि यौवन और कामवासना क्या वस्तु है । ये दोनों ही तत्त्व उसके अंग में सोए पड़े थे। और इस दृष्टि से वह अभी एक निपट बालिका थी। परन्तु वह इतनी कम- समझ भी न थी कि जुगनू के प्रणय-निवेदन के मर्म को न समझ सके । उसकी सहेलियां यद्यपि जब-तब उससे विवाह और वैवाहिक जीवन की चर्चा करती