पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२३५

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बगुला के पंख २३३ जुगनू ने कहा, 'तुमने खत क्यों लिखा, तार क्यों नहीं दिया ?' 'उन्होंने नहीं देने दिया । खत भी मैंने उनसे छिपाकर लिखा था।' 'कैसे अफसोस की बात है ! आखिरकार मैं उन्हें देख भी न सका।' एक बार जुगनू की आंखों में अपनी जीवन-घटनाएं तथा अपनेपर किए गए शोभाराम के उपकार सिनेमा के चलचित्र की भांति घूम गए । उसकी आंखों में आंसू छलछला आए । पद्मा ने देखा तो कहा, 'अब तुम क्यों रोते हो ?' 'ठीक है । हमें रोना नहीं चाहिए। रोने से कोई लाभ नहीं है।' जुगनू ने कहा । फिर कुछ रुककर पूछा, 'उन्होंने कुछ अन्तिम इच्छा प्रकट की थी ?' 'कुछ नहीं। मरने से दो दिन पूर्व ही से उन्होंने वोलना बन्द कर दिया था। सिर्फ मेरी ओर देखते और प्रांसू बहाते थे। पर होश उन्हें अन्त तक रहा।' 'पुण्यात्मा जीव थे। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। लेकिन पद्मा, अब तुम्हें सब्र करना होगा।' 'हां, सब ही करना होगा।' पद्मादेवी ने ठंडी सांस खींची। नौकर चाय ले आया । पर जुगनू ने उसकी ओर देखा तक नहीं। पद्मा ने सूखे कंठ से कहा, 'एक प्याला चाय पी लो और मुझे बताओ, मैं क्या करूं ।' 'जब तक मैं ज़िन्दा हूं, तुम्हें किसी बात की चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन यह जगह तो बड़ी सुनसान है, यहां तुम अकेली नहीं रह सकतीं। 'क्या तुम मुझे यहां छोड़ जानोगे ?' पद्मा ने भरे कंठ से कहा। 'हम अभी सब बातों पर विचार कर लेंगे। परन्तु अभी तो यह आवश्यक है कि यहां से हम चल दें।' 'नहीं, अशौच जब तक है, मैं कहीं न जाऊंगी।' 'बड़ी मुश्किल है, परन्तु मैं तो अधिक देर तक ठहर नहीं सकता।' 'तो मैं अकेली ही रहूंगी।' 'परन्तु यहां मसूरी ही में वस्ती के भीतर कोई बंगला ले लिया जाए तो कैसा रहे ?' 'अशौच तक तो मैं यहीं रहूंगी।' 'खैर, जैसी तुम्हारी इच्छा । ऐसी हालत में मुझे भी मजबूरन रहना होगा।