पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२३६

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२३४ बगुला के पंख तुम्हें इस हालत में मैं यहां अकेले नहीं छोड़ सकता। लेकिन मैं यह चाहता हूं कि अभी कुछ महीने, कम से कम गर्मी भर, तुम मसूरी ही में रहो। मैं बंगले का प्रबन्ध कर दूंगा। इसके बाद आगे की बातों पर विचार कर लिया जाएगा।' 'जैसा तुम ठीक समझो।' पद्मा ने एक विचित्र दृष्टि से जुगनू की तरफ देखा और आंखें नीची कर ली। ७३ अशौच के सब उपचार सादा रीति से सम्पन्न हो गए। शोभाराम अब बीती हुई बात हो गए। पद्मा के लिए जुगनू ने लंढौर में एक बंगला ठीक कर लिया । बंगला छोटा-सा रमणीक था। सहन में एक छोटी-सी फुलवारी भी थी। पास-पड़ोस में अनेक सद्गृहस्थ थे। पद्मा वहां उठ आई। नौकर साथ था। आवश्यक सामग्री खरीद ली गई। अब जुगनू को यहां आए दस दिन बीत रहे थे। उसने कहा, 'अब तो मुझे जाना ही होगा। इलैक्शन हो रहा है । तीन तार आ चुके हैं।' 'तब जाओ, जब तक न पायोगे आंखें उधर ही लगी रहेंगी।' पद्मादेवी की आंखें छलछला आईं। उसने कहा, 'असहाय, कमज़ोर औरत हूं। हाथ पकड़ते हो तो निबाह करना, ऐसा न हो मैं कहीं की न रहूं।' 'पद्मारानी, मैं तुम्हें प्राणों से बढ़कर समझंगा। हम लोग देवता और सूर्य के समक्ष अब पति-पत्नी हैं, यथासमय कानूनी विधि-विधान भी हो जाएगा।' 'यह सब मैं नहीं जानती । मैंने तो तन-मन तुम्हें सौंप दिया ।' 'सो इसके लिए तुम्हें कभी पछताना न पड़ेगा पद्मारानी, मैं तुमपर जान न्यौछावर कर दूंगा।' 'मैंने बहुत चाहा कि मैं तुम्हें भूल जाऊं । उनके रहते मैं पापिनी बनी, तन से न सही, मन' से ही। अब जो भला-बुरा होना था हो गया। अब तुम्हें छोड़ मेरी गति कहां है ! सो मेरी लाज रख लेना।' पद्मा फूट-फूटकर रोने लगी।