पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२३७

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बगुला के पंख २३५ जुगनू ने उसे खींचकर छाती से लगाकर और उसका मुंह चूमते हुए कहा, 'मेरी प्यारी पद्मा, मैं भी तुम्हारे लिए तड़प रहा था । अब कौन हमें जुदा कर सकता है !' 'मैंने मन को बहुत समझाया । तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह किया, पर अन्त में हार बैठी । तुम मुझे निर्लज्ज कह सकते हो। पर मैं तन-मन से बहुत दिन पूर्व से ही तुम्हारी हो चुकी थी। और अब तो तुम ही मेरे सर्वस्व हो।' 'तुम पद्मा, मेरे नेत्रों की रोशनी, हृदय की देवी, आत्मा का शृंगार और जीवन का सहारा हो । अब यह सारा ही जीवन तुम्हारा है। केवल तुम्हारा।' उसने पद्मा को फिर आलिंगनपाश में बांध लिया। बहुत देर तक पद्मा उसके वक्ष से लगी सुबकियां लेती रही। अन्त में बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर, बहुत-से लम्बे-लम्बे अाशा-सूत्र गूंथ- कर जीवन की अनेक झांकियों की चर्चा करके जुगनू वहां से दिल्ली के लिए रवाना हुआ। चलते समय दो हज़ार रुपये उसने पद्मा के हाथों में रखते हुए कहा, 'खर्च की तकलीफ मत पाना पद्मारानी । मैं जल्द ही तुमसे मिलूंगा।' जुगनू चला गया। पद्मा बहुत देर तक उस जाते हुए को देखती रही, आंसू- भरी आंखों से, हृदय में प्राशाओं और सुखद कल्पनाओं के बोझ से पीड़ा और वेदना को दबाती हुई, अांसुओं पर मुस्कान की मुहर हुई, धड़कते हृदय को धीरज देती हुई । हाय रे स्त्री के असहाय जीवन ! विधाता ने स्त्री को लता के समान परवर्ती बनाया, जो अकेली, बिना सहारे नहीं रह सकती। ' ७४ डैमोक्रेसी का क्या ही बेहूदा और बेईमानी से भरा हुआ तरीका है यह चुनाव का सिस्टम, जिसके लिए दुनिया भर के अनीतिमूलक काम धूमधाम से किए जाते हैं। और दुनिया भर की गुण्डागर्दी करके चुनाव जीते जाते हैं, और तव अपने को जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि कहकर बेहयाई की सीमा लांघ दी जाती है।