पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२३८

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२३६ बगुला के पंख चाहिए तो यह कि योग्यतम पुरुष को जनता अपना प्रतिनिधि चुने। और वह लोकसभा या दूसरे सार्वजनिक हितों से सम्बन्धित स्थलों पर जाकर अपनी प्रतिभा, बुद्धि, विवेचना-शक्ति से शासन की गतिविधि को लोकहित और जन- सेवा के प्रति अभिमुख करे । सच्ची लोकशाही यही है । परन्तु चुनावों का ढर्रा तो बड़ा ही अनोखा है। गणतन्त्रों का एक भारी दोष यह है कि उनमें योग्यतम व्यक्ति को अधिकार नहीं मिलता । गुटों के प्रतिनिधि को अधिकार मिलता है । चाहे उसमें योग्यता हो या नहीं। इस समय देश कई गुटों में बंटा हुआ था, जिनसे परस्पर-विरोधिनी शक्तियां बनी हुई थीं-समाजवादी, कम्युनिस्ट, और जाने कौन-कौन-से गुट ; और अब देश की व्यवस्था का सुचारु रूप से संचालन करने के लिए जहां देश के योग्यतम जनों को जनप्रतिनिधियों के रूप में शासन-केन्द्रों में जाना चाहिए था, वहां इन गुटों के अयोग्य प्रतिनिधि भरे हुए थे । अंग्रेज़ी शासन में जिन कुर्सियों पर सर फिरोजशाह मेहता, महामना मालवीय, गोपाल- कृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, पंजाबकेसरी लाला लाजपतराय' और श्रीनिवास शास्त्री जैसे महामहिम सुशोभित हो गुलामी के वातावरण में भी अपनी आभा ध्र व नक्षत्र की भांति प्रकट कर चुके थे, वहां अब दूध बेचनेवाले, अखबार वेचनेवाले बैठे मौज-मज़ा कर रहे थे। वे वेतन- भत्ता लेते, टांग पसारकर कुसियों पर ऊंघते और चैन की बंमी बजाते थे। मिनिस्टरों के दिन ईद और रात दिवाली में परिणत हो गए थे । वे अपने विभागों से सम्बन्धित विषयों को नहीं जानते थे। अपने विभागों के कार्यकलापों से अनभिज्ञ थे। उनकी योग्यता केवल यही थी कि वे अमुक दल के प्रतिनिधि हैं। बस, इसी योग्यता पर उन्हें कहीं न कहीं मिनिस्टर, गवर्नर, राज्यपाल या अलाय-बलाय कुछ बनाकर मालमलीदे उड़ाने और चैन की बंसी बजाने की प्रबन्ध-व्यवस्था कर दी जाती थी। और जवाहरलाल जैसे समर्थ युगपुरुष भी उनके जाल में उलझकर जनहित के कार्यों में लगनेवाली शक्ति का अधिकांश इस ताने-बाने की उलझन सुलझाने में लगा रहे थे । देश में चोरबाज़ारी, रिश्वत, अशान्ति, षड्यन्त्र, अव्यवस्था, भुखमरी और भ्रष्टाचार फैलता जा रहा था। लोग समझ रहे थे कि हम पठानों के युग में लौट आए हैं । अंग्रेजों की गुलामी का सुख उन्हें याद आ रहा था। 1 -ग