पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२६०

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२५८ बगुला के पंख 'लेकिन मेरे बैंक में तो यह रकम जमा नहीं है।' 'तो मुझे इससे क्या ? आपको कोरा चैक देने का वादा सोच-समझकर करना चाहिए था। अब तो मुझे यही रकम चाहिए।' 'सच ?' लाला फकीरचन्द ने घूरते हुए कहा ।' 'क्या ऐसे मामलों में भी मज़ाक चलता है ?' लाला फकीरचन्द ज़रा और पास कुर्सी खिसका लाए। उन्होंने आहिस्ता से कहा, 'शारदा तो डाक्टर खन्ना की लौंडिया है न ?' 'जी हां।' 'तो हुजूर उससे शादी करना चाहते हैं ?' 'बेशक ।' 'तो आप मुझसे क्या चाहते हैं ?' 'सिर्फ यही, लड़के के बाप बनकर खूबसूरती से यह काम अंजाम दे दीजिए।' 'भई मार डाला । बड़े गहरे हो मुंशी, मान गया तुम्हारी खोपड़ी को । देखो, अब बेटे बनते हो, इन्कार न करना।' 'इन्कार क्यों करूंगा।' 'तो समझ लो शादी इस धूमधाम से होगी कि दिल्ली में आज तक न हुई होगी ! मुंशी, मेरा सब कुछ तुम्हारा है, फिक्र मत करो। मगर भई, दाना बड़ा नायाब चुना। 'खैर, तो पहल कब होगी ?' 'अभी जा रहा हूं-डाक्टर खन्ना के पास । जैसे बनेगा सौदा पटाकर ही लौटूंगा। अब तक तो किसी सौदे में हार खाई नहीं। उम्मीद है यह सौदा होकर रहेगा। हां, जात-पात की बात चलेगी। तुम मुंशी, उनकी बिरादरी में तो हो नहीं।' 'जी नहीं।' 'तब ?' लाला फकीरचन्द ज़रा सोच में पड़ गए। पर फिर उन्होंने कहा, 'खैर, देखा जाएगा। फिक्र मत करो पुत्तर, जा रहा हूं तुम्हारी दुलहिन का मामला पटीलने ।' वे हंसे और हाथ जोड़कर नमस्कार किया और चल दिए । जुगनू का दिल धड़क रहा था । बस, अब यही आखिरी दांव था। अब तक सदा किस्मत ने साथ दिया, अब इस आखिरी दांव में क्या किस्मत धोखा देगी ? जुगनू यही सोच रहा था। - । 1