पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/४९

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बगुला के पंख ४७ , एक झटके के साथ वह उठ खड़ा हुआ और पुस्तक को यों ही टेबल पर छोड़कर चल दिया। सूर्यास्त हो चुका था। स्टेशन के बाहर सैकड़ों बत्तियों का प्रकाश फैल रहा था। कुछ देर वह चुपचाप खड़ा उस प्रकाश को और आने-जाने वालों की भीड़ को देखता रहा । पैदल, मोटर, रिक्शा, तांगा-इन सबका तांता बंधा था। सब इधर से उधर दौड़ रहे थे । उसने अपने मन में कहा, 'सब जीवन की दौड़ लगा रहे हैं । केवल मैं चुपचाप खड़ा हूं, सूखे ढूठ की भांति । नहीं, नहीं, मैं इस प्रकार यहां खड़ा नहीं रहूंगा। दौड़ लगाऊंगा। और सब दौड़ने वालों से आगे पहुंचूंगा।' उसकी छाती में मानो कोई बिजली का करंट छू गया । वह तेज़ी से एक ओर चल दिया। एक स्कूटर खाली जा रहा था। उसे संकेत से रोककर कहा, 'चलो, तीस हज़ारी । बंगला नम्बर तीन सौ दस ।' उसने इस शान से ये शब्द कहे मानो वह कोई बड़ा अफसर हो। वह स्कूटर में बैठ गया। वह मजिस्ट्रेट जोगेन्द्रसिंह के बंगले की ओर जा रहा था। किसी अज्ञात प्रेरणावश । बिना ही सोचे-विचारे उसके मुंह से उनके बंगले का नम्बर निकल गया था। जब वह मजिस्ट्रेट जोगेन्द्रसिंह के बंगले पर पहुंचा तो जोगेन्द्रसिंह कहीं जाने को मोटर में बैठ रहे थे। उस दिन उनके मकान पर मुशायरे का खूब रंग जमा था। पर उस दिन के बाद जुगनू उनसे मिला नहीं था। इस समय अचानक उसे पाया देख जोगेन्द्रसिंह प्रसन्न हो गए। उन्होंने प्रसन्न मुद्रा से उच्च स्वर में कहा, 'कम आन मुंशी, भई, उस दिन के बाद से ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।' मजिस्ट्रेट साहब ज़ोर से हंस दिए। आगे बढ़कर उन्होंने जगन का हाथ पकड़ लिया और कहा, 'अच्छा, कहीं जल्दी में तो नहीं हो ?' 'जी नहीं, आज फुर्सत निकालकर ही आपसे मिलने आया हूं।' 'तो बैठो गाड़ी में।' जुगनू स्कूटर वाले को देने के लिए पैसे निकालने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे मोटर में धकेलते हुए कहा, 'तुम बैठो मुंशी । पैसे उसे चपरासी दे देगा।' और वह स्वयं भी ड्राइव करने के स्थान पर बैठ गए। चपरासी को उन्होंने स्कूटर वाले को पैसे देने का संकेत किया और मोटर छोड़ दी।