पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/५५

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बगुला के पंख 7 ऊपर धकेलते हुए कहा, 'लीजिए हुजूर, संभालिए अपने माल को।' काफी देर तक हंसी-मज़ाक, ड्रिंक-खुराफात चलता रहा। नवाव और उस्ताद लोग वहां से खिसक गए। कमरे की रोशनी मद्धम कर दी गई । हविस, वासना, धीरे-धीरे अपना नंगा स्वरूप धारण करने लगीं । अश्लील वाक्य' और हाथापाई तक नौबत पहुंची और अन्त में हीराबाई सरदार जोगेन्द्रसिंह की भारी-भरकम लाश को धकेलती हुई अपने कमरे में ले गई । लाला फकीरचन्द ने वहीं मसनद पर अपने पांव फैला दिए। सुबह चार बजे जब तीनों आदमी मोतीबाई के कोठे से उतरे तो जुगनू का नशा उतर चुका था। परन्तु उसका सिर दर्द से फटा जाता था। होश-हवास अभी भी उसके दुरुस्त न थे। नशा न था, एक स्वप्न' था, जो उसकी चेतना को घेरे हुए था । वह स्वस्थ और तरुण व्यक्ति था। स्वस्थ कामवासना स्वाभाविक रूप में उसके शरीर में जागरित थी । एक तरफ उसे स्त्री का स्पर्श दुष्प्राप्य' था, दूसरी ओर शारदा और पद्मा की स्त्री-मूर्ति उसके मानस पर निरंतर काम-विकार का पुट चढ़ाए रहती थी। इस उत्तप्तता और काम-बुभुक्षा के तीव्र आवेग में उसे अाज अनायास ही अयाचित रूप में जो दुर्लभ नारी- यौवन का मुक्त स्वच्छन्द उपभोग प्राप्त हुआ, वह तो उसके लिए अनिर्वचनीय था ही, उसपर शराब की उत्तेजना ने उसे आनन्दातिरेक की सीमा पर पहुंचा दिया । उसका सम्पूर्ण तारुण्य प्राज तृप्त हुआ। जीवन में पहली बार भूख की तड़प और तृप्ति दोनों का आस्वादन उसने किया । उसका प्रत्येक रोमकूप, उसके शरीर का प्रत्येक रक्त-बिन्दु, उसके मस्तिष्क की सम्पूर्ण चेतना काम-तत्त्व से आपूर्यमाण हो गई । वह जैसे कामावेग के अथाह समुद्र में डूब गया। वह जग रहा था, पर इसका उसे ज्ञान न था । कार तेजी से जा रही थी। सुबह की ठंडी हवा का झोंका उसे सुखद लग रहा था । लाला फकीरचन्द अपनी कार में घर चले गए थे और सरदार को उनकी गाड़ी में छोड़ गए थे। उनका ड्राइवर रात भर गाड़ी में सोता रहा था। प