पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/५६

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५४ बगुला के पंख अपनी गाड़ी में बैठकर सरदार जोगेन्द्रसिंह ने कहा, 'मुंशी, अब इस हालत में इस वक्त कहां जाओगे । चलो हमारे ही घर चलो।' 'बहुत अच्छा,' इतना कहकर जुगनू फिर चुपचाप पड़ रहा । घर पहुंचकर सरदार जोगेन्द्रसिंह ने जुगनू के आराम करने का प्रबन्ध कर दिया और स्वयं आराम करने चले गए। बहुत देर तक जुगनू सोता रहा । जब उसकी अांख खुली तो काफी दिन चढ़ आया था। रात की बीती हुई बातें उसे सपने-सी लग रही थीं। जो दिन बीत चुका था, वह उसके जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था। इसी दिन उसने अपनी हीनावस्था का सच्चा दर्शन किया था। इसी दिन उसने ज्ञानलोक की झांकी देखी थी और इसी दिन उसने वासना का सम्पूर्ण वैभव उपभोग किया था। इन तीनों बातों ने उसकी चेतना को बुरी तरह पाहत कर दिया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, बीते हुए दिन के चौबीस घण्टों ने उसे एक सर्वथा नवीन जीवन दे दिया है। अब वह पुराना जुगनू नहीं है, नया जगनपरसाद है । उसने देखा, उसका मस्तिष्क ज्ञान से खाली है। वह सोच रहा था, वह उसे ज्ञान- सागर से भर देगा। वह देख रहा था, वह जीवन के सम्पूर्ण सुख से रहित है। वह सोच रहा था, वह अव संसार के ऐश्वर्य और सुख की अपने चारों ओर गंगा वहा देगा। परन्तु अभी एक बात का, एक अभाव का उसे पता न था। उसकी जेब खाली है, हाथ खाली है, वह दरिद्र है । वह यह नहीं जानता था कि जब तक वह दरिद्र है, खाली हाथ है, तब तक उसके सारे प्रयास निष्फल हैं । वह ज्ञान के भण्डार का स्वामी हो सकता है, भोग और सुखों को अपने चारों ओर विखेर सकता है, परन्तु वह नहीं जानता था कि जब तक धन-सम्पदा उसके चरण नहीं चूमती, वह यथार्थ भोगों का आनन्द नहीं ले सकता। अभी वह अपने विचारों में खोया-खोया बैठा था । नौकर ने उसे कहा, 'पाप नित्यकर्म से निबटकर नहा लीजिए। सरदार साहब चाय पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' दह उठा । उठकर उसने स्नान किया, स्नान करने से उसका मन हरा हुआ। भीतर से प्रसन्नता की, अानन्द की एक धार जैसे उमड़ी चली आ रही थी और जब वह मजिस्ट्रेट साहब के बराबर कुर्सी पर बैठकर चाय पी रहा था, तो वह अनुभव कर रहा था कि वह जहां बैठा है, अपने स्थान पर ही है । अब