पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/६९

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बगुला के पंख ६७ दम बदहवास की भांति पलंग पर पड़ गई १८ बहुत देर तक भूमि पर उसी प्रकार जुगनू पड़ा रहा । घर में सन्नाटा था। कहीं से कोई आहट नहीं आ रही थी। बहुत देर बाद उसने मुंह उठाया। दुपहर हो गई थी। धूप में तेजी आ रही थी। लेकिन सर्दी के दिन, सिकुड़े-से, ठिठुरे- से। फिर भी मौसम सुहावना था । वह उठा, दुनिया उसे घूमते हुए लटू के समान दीख रही थी। यह क्या हो गया, इतनी बातें वह कैसे कह गया, अब क्या होगा ? पद्मा क्या शोभाराम से सब हाल कह देगी, और मुझे ज़लील होकर यहां से मुंह काला करना होगा ? नहीं, नहीं, अब मैं यहां नहीं रह सकता। मैं न पद्मादेवी को मुंह दिखा सकता हूं, न शोभाराम को। मुझे यहां से बस चल ही देना चाहिए। वह उठा, जैसे-तैसे उसने कपड़े पहने और बिना आहट किए वह मकान से बाहर निकल गया। एक बार उसने पद्मादेवी के कमरे के बन्द किवाड़ों की ओर देखा अवश्य । पर वह जाए कहां? यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था । परन्तु वह तेजी से एक ओर चला जा रहा था। उसे न भूख थी, न प्यास । बड़ी देर तक वह बाज़ार के चक्कर लगाता रहा। कई बार वह भीड़भाड़ में लोगों से टकराया, मोटर-रिक्शा की चपेट में आते-आते बाल-बाल बचा । किसीने कहा, 'अन्धे हो,' किसीने कहा, 'अजी साहब, ज़रा संभलकर चलिए, किसीने केवल नाक-भौं सिकोड़कर देख भर लिया। परन्तु इन सब बातों की ओर उसका ध्यान न था। वह चला ही जा रहा था। अचानक एक हिंस्र भावना उसके मन में उदय हुई और वह अकस्मात् ही कुछ निर्णय' करके एक अोर को चल दिया। शीघ्र ही वह जी० बी० रोड जा पहुंचा और मोतीबाई के कोठे के नीचे जा खड़ा हुआ। परन्तु जिस तेज़ी से चलकर वह यहां तक आ पहुंचा था, उसी तेज़ी से वह कोठे पर चढ़ न सका। जीने के नीचे सड़क पर खड़ा होकर ऊपर को देखने लगा। धूप चारों ओर फैली हुई थी। लोग आ-जा रहे थे । मोटर, रिक्शा, लारी, ट्रक इन सबकी सड़क