पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/९३

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बगुला के पंख २५ दूसरे ही दिन नवाब लाला फकीरचन्द की कोठी पर जा पहुंचा। दिन- दोपहर मुनीम-गुमाश्तों के बीच बैठे, बिजनेस करते हुए लाला फकीरचन्द को इस तरह धड़ल्ले से वेश्या के दलाल का अपनी कोठी पर आना पसन्द न पाया। उन्होंने ज़रा रूखे स्वर में कहा, 'इस वक्त कैसे पाए ?' 'सलाम करने चला आया । अरसे से दर्शन नहीं हुए थे।' 'मतलब की बात कहो, इस वक्त मुझे फुर्सत ज़रा कम है।' 'तो बन्दा-परवर, जब फुर्सत हो तब सही। आया था एक खुशखबरी देने । एक मुफीद बात कहने ।' 'तो कहो न, कोई नया माल आया है ?' 'जी हां, मगर माल नर है, मादा नहीं।' 'क्या मतलब ?' 'मतलब यह कि यह जी० बी० रोड नहीं है, लाला की कोठी है और रात नहीं है, दिन है। नवाब बेवकूफ नहीं है कि वक्त और मौका न पहचाने। नवाब सिर्फ काम की बात ही पसन्द करता है।' 'तो भाई, बात साफ-साफ कहो।' 'आपके दोस्त अब म्यूनिसिपल चेअरमैन बन गए हैं, इसीकी मुबारकबादी देने आया था, उम्मीद है कि आप भी इस मौके से पूरा फायदा उठाएंगे।' 'कौन दोस्त ?' 'वह मुंशी साहब।' 'ओह, उस मरदूद का नाम न लो। मरदूद ने पूरे पचास हज़ार का जूता जड़ा है। साला मेरे मुकाबले खड़ा हुआ और मेरे ही हल्के में मुझे मात दे गया।' 'तो हुजूर क्या मुज़ायका है ! अब मय सूद के सब वसूल कर लीजिए।' 'लेकिन कैसे ?' 'अाप तो किबला दानावीना हैं। दुनिया की आंख देखे हुए। बस खरीद लीजिए उसे और अपनी जेब में डाल लीजिए। और समझ लीजिए गोया आप ही चेअरमैच' हैं।'