पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/९४

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६२ बगुला के पंख लाला फकीरचन्द नवाब का मुंह ताकने लगे। उन्होंने कहा, 'तुम्हारा मतलब क्या है ? 'बिलकुल सीधी बात है, सरकार । समझिए मौके पर आपका कुत्ता बैठा है।' 'लेकिन वह तो कांग्रेसी है। मेरे हत्ये क्यों चढ़ने लगा ?' 'वह न कांग्रेसी है, न संघी। कोरा मुंशी है। चांदी का जूता मारिए और मतलब साधिए। आपने तो जंग के ज़माने से इसी जूते की करामात से करोड़ों कमाए हैं।' 'तो तुम समझते हो, वह मतलब का आदमी है ?' 'अब हुजूर, जर दीदम, फौलाद नरम ।' 'तो ज़ामिन कौन है ? 'यह नवाब।' 'और यदि धोखा हुअा ?' 'क्या नवाब के हाथों ?' 'भई, दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंककर पीता है ।' 'तो सलाम, मैंने नाहक आपको तकलीफ दी।' नवाब उठकर चलने लगा। लाला फकीरचन्द ने कहा, 'भाई, तुम तो इतने ही से बिगड़ उठे। मैंने एक बात कही। 'लाला साहब, हर बात की एक कीमत होती है और हर काम का एक वक्त होता है । मैं तो आपकी मुहब्बत और खैरख्वाही से चला आया था। मेरे हाथों आपको फायदा हो तो मुझे खुशी है।' 'तो तुम इस बात में कुछ तन्त समझते हो ?' 'लाखों पर हाथ मारने का मौका है साहब।' 'आओ, इधर बैठो नवाब । यार, तुम तो बात ही बात में नाराज़ हो उठते हो । लो सिगरेट पीनो।' लाला फकीरचन्द ने हाथ पकड़कर नवाब को गद्दी पर खींच लिया। सिगरेट पेश की, चाय' मंगाई, नाश्ता मंगाया और फिर घुट-घुटकर पूरे डेढ़ घण्टे बातचीत होती रही। 'जब नवाव 'रुखसत अर्ज़' कहकर उठने लगा, तो लाला ने कहा, 'मगर वह स-चेअरमैन है।' तो वाइस-