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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा ८६ किया था कि सरल-हृदया। जनपद-वधुएँ और ग्राम-वृद्ध मेरी कथा पर मुग्ध बने हुए थे । एक सन्ध्या को मैं व्यासासन से उठा ही था कि एक अति कमनीय-मूर्ति वृद्ध महिला ने आकर मेरे चरण स्पर्श किए। मैंने उसकी ओर देखा—उसका मुख-मण्डल मुरझाए हुए कमल-पुष्प के समान खिन्न था। कुण्डलित केश अस्त-व्यस्त हो रहे थे । अाँखों में एक प्रलयपूर का दृश्य था। अहा, कितनी भक्तिमती थी वह, कितनी विश्वास-परायण और कैसी सरल-हृदय ! मैंने पूछा-‘क्यों अम्ब, इतनी व्याकुल क्यों हैं ? क्या हुआ ? कल्याण हो मातः, अपनी व्यथा मुझ से बता । मैं क्या सहायता कर सकता हैं ? वृद्धा ने रुद्ध-कण्ठ से कहा--'तुम ब्राह्मण हो आर्य, पृथ्वी के देवता हो आर्य, तुम्हारे आशीर्वाद से मेरा कल्याण होगा। मे। एक-मात्र पुत्र धर-द्वार छोड़कर न जाने कहाँ चला गया है, कोई विधि बताओ कि मैं अपनी खोई हुई निधि पा सकें। कोई अनुष्ठान, कोई मांगल्य-व्रत, कोई जप- होम बता दो कि मैं अपने लाल को पा सकें। य, उसकी बालिका वधू को क्या कह कर सान्त्वना दें ? उस वृद्धा की बात से मैं क्षण-भर के लिए विचलित हुअा। मैं भी तो घर-द्वार छोड़ कर भाग आया हूँ। पर दूसरे हो क्षण मैं सम्हल गया; चलो, मेरी कोई माता नहीं है, जो बिलख-बिलख कर धार्मिकता का ढोंग रचने वालों से अनुष्ठान की विधि पूछती फिरेगी । फिर कोई बालिका या प्रौढ़ा वधू भी नहीं है, जिसे सान्त्वना देने के लिए किसी को माथापच्ची करनी पड़ेगी । पर यह हतभाग्य कौन है, जो ऐसी माता और बहू को छोड़ कर भाग गया है ? वह कहाँ गया होगा १ वृद्धा को धीरज बँधाते हुए मैंने कहा-व्याकुल मत हो, अम्ब ! तेरी निधि तुझे मिलेगी । और फिर कुछ व्रत और उपवास की विधियाँ बता कर अपना पिण्ड छुड़ाया । वृद्धा चल गई; पर मेरे मानस-पट में एक विशाल छेद करती गई । मेरा कोई नहीं है—न