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बाण भट्ट की आत्म-कथा

अणि भट्ट की आत्म-कथा बिलखने वाला, न सान्त्वना की आशी लगाए रहने वाला । मैं अकेला हूँ, संगीहीन हूँ, हतभाग्य हूँ, रह-रह कर मेरा मन मुझे अवश करने लगा। मुझे यह दुर्निमित्त-सा लगा। अब तक जिसके हृदय पर संसार की हँसी और रुलाई पद्म-पत्र पर के सलिल-बिन्दु के समान आई और गई', वह व्यक्ति श्राज व्याकुल क्यों है ? क्या अरुण को देख कर सूर्योदय की सम्भावना नहीं होती है क्या पवने को देख कर जलागम का अनुमान संगत नहीं है ? तो क्या मेरे चित्त का यह विकार किसी पूर्व-निदर्शन के उदय के समान है ? मैंने सोच्छवास कहा- अरुण इच पुरःसरो रविं पवन इवातिजवाजलागमम् । शुभमशुभमथापि वा नृणां कथयति पूर्व निदर्शनोदयः ।' तब से मैं उस घटना को भूल गया था। आज हठात् मेरे मुँह से यही आर्या निकल पड़ी । तो दुनिमित्त अभी कटा नहीं है ? कल संध्या से लेकर आज की संध्या तक घटनाक्रों के एक वात्याचक्र में बुरी तरह उलझ गया हूँ। क्या कोई अदृष्ट शक्ति किसी अचिन्तनीय विरोध परिस्थान में मुझे घसीट रही है ? क्या आज से बाण भट्ट का हृदय पद्म-पत्र की तरह अनासक्त नहीं रह सकेगा ? कौन जाने ! इसी समय गृह के द्वार पर वन-कुक्कुटों के उड़ने के कारण मरमराहट की आवाज़ हुई । गृह-द्वार के एक पाश्र्व में कुछ अयन- बद्धित करवीर के झाड़ थे। सन्ध्या होते ही उन पर वन-कुक्कुट की बस्ती बस जाती थी। उनके अचानक उड़ने से मुझे सन्देह हुआ कि कोई आ गया है । निश्चय ही पुजारी होगा | मैं जल्दी-जल्दी घर से बाहर निकला । द्वार पर मैंने जो-कुछ देखा, वह अप्रत्याशित ही नहीं, अदृष्टपूर्व भी था। मैं इस प्रकार हतचेष्ट हो

  • हर्षचरित, ४ उच्छवास