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बाण भट्ट की आत्म-कथा

६४ बाण भट्ट की आत्म-कथा सुदर्श है। भैरवी ने फिर एक बार मेरे विरुद्ध अभियोग किया। बाबा ने बच्चे की भाँति हँसते हुए कहा--‘क्यों रे, वहाँ क्यों गया था ? पगले, वह मायाविनी है, उसके जाल में फँस गया ! यह कह कर उन्होंने चण्डी-मण्डप की मूर्ति की ओर इशारा किया। फिर बोले--- ‘अकेला था ?? मुझे ऐसा लगा कि बाबा सब जान गए हैं, उनसे कुछ छिपाना व्यर्थ है । परन्तु बाबा का अभिप्राय कुछ और ही था । मैं समझ नहीं सका और गिड़गिड़किर गोल उठा--..कल रात को दो दुःखिनी स्त्रियों को लेकर इस गृह में अश्रिय लिया था, बाबा ! इस गृह में हमने खाया-पिया है और जूठन से इसे अपवित्र किया है। मैं जिस दुःखिनी कन्या को आश्रय देने के लिए यहाँ ले आया था, उसने महावाराह की पूजा भी की है—पर सब-कुछ अनजान में हुआ है। अपराध क्षमा हो, अर्थ !' यह कह कर मैंने भयपूर्वक प्रणिपात किया । बाबा बोले-डरता है रे ११ मैंने संक्षेप में उत्तर दिया--"हाँ, बाबा ! | बाबा कुछ इस प्रकार सजग हो गए, जैसे किसी बच्चे को कोई तमाशा देखने को मिल गया हो। उठ कर सीधे बैठ गए और कौतूहल के साथ बोले-‘इधर आ ! मैं जब उनके पास गया, तो उन्होंने मेरा ललाट छू दिया। मेरे दोनों भ्रओं के मध्य-भाग को उन्होंने अपने अंगुष्ठ से दबाया और फिर हटा लिया | मेरा सिर चकरा गया । क्षण-भर में मेरे सामने एक भयंकर दृश्य उपस्थित हो गया । मैंने देखा कि भट्टिनी और निपुणिका नाव में बैठी पूरब की ओर जा रही हैं । उधर पूर्वी आकाश काले बादलों से छ। गया है। बादलों के अागे-आगे पिंगल-वर्ण की धूलि दौड़ रही है और उसके भी आगे छोटे-छोटे तालचंचु पक्षियों का एक दल धूल और बादलों के साथ खेलता हुआ भागा आ रहा है। मैं किनारे पर खड़ा हूँ। बादल और घने हो गए । वायु- मण्डल में थोड़ी सर्दी का आभास मिला । फिर भयंकर प्रभंजन के