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बाण भट्ट की आत्म-कथा

‘मैं साधारण मनुष्य हूँ, आर्य! अपराध करता ही रहता हूँ; किन्तु जान-बूझ कर कभी किसी का अनिष्ट नहीं किया है। मैं अमंगल से डरता हूँ।’

‘ब्राह्मण है न?’

‘हो, आर्य!’

‘तेरी जाति ही डरपोक है। क्यों रे, महावराह पर तेरा विश्वास नहीं है?’

‘है आर्य!’

‘झूठा! तेरी जाति ही झूठी है! क्यों रे तू आत्मा को नित्य मानता है?’

‘मानता हूँ, आर्य!

‘पाखण्डा! तेरे सब शास्त्र पाखण्ड सिखाते हैं! क्यों रे कर्मफल मानता है?’

बाबा के इस प्रश्न का उत्तर अब सहज ही मैं नहीं दे सका। फिर न जाने मेरी जाति पर कौन-सा विशेषण बैठा दिया जाय। ज़रा- सा वक्रभंगी से कतरा जाने की चेष्टा करते हुए मैंने कहा-‘कैसे कहूँ, बाबा!’

बाबा हँसे। बोले- 'बता न, तू कर्मफल मानता है या नहीं?’

‘मानता हूँ, आर्य!’

‘तो अमंगल से क्यों डरता है? मिथ्याचारी है तू!’

‘हाँ, आर्य, सो तो हूँ!’

‘तो कुछ सच्ची बात सीख न!’

‘क्या आर्य!’

‘यही कि डरना नहीं चाहिए। जिस पर विश्वास करना चाहिए, उस पर पूरा विश्वास करना चाहिए, चाहे परिणाम जो हो। जिसे मानना चाहिए, उसे अन्त तक मानना चाहिए।’