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बाण भट्ट की आत्म-कथा

६॥ बाण भट्ट की आत्मकथा कर्म का अभागा, मिथ्यावादी, पाषण्ड !! महावराह को बचायगा तू ! दम्भी !! | मैं हृत चेष्ट, निर्वाक्, स्तब्ध ! बाबा का क्रोघ वास्तविक नहीं था । मेरी परीक्षा लेने के लिए ही उन्होंने यह रूप धारण किया था। मैं विचलित हो गया। मेरी इच्छा के विरुद्ध जैसे किसी ने मुझसे कहलवा लिया---‘प्राण देकर मैं भट्टिनी को बचाऊँगा ।' बाबा हँसने लगे। उनकी अद्ध मुद्रित आँखें चमक उठीं । बोले- 'अभागा, सारी ज़िन्दगी में तूने यही एक बात सच कही है। क्यों रे, लजाता है ? दुत् पगले, उस मायाविनी के जाल में फंस रहा है ? बुर। क्या है रे, त्रिपुर-सुन्दरी ने जिस रूप में तेरे मन को भुलाया है, उसे साहसपूर्वक स्वीकार क्यों नहीं करता ? तू अभागा ही बना रहेगा, भोले ! तेरे मन में महावराह से अधिक पूज्य भावना उस लड़की के प्रति है । है न रे ? फिर झूठ बोलेगा भाग्यहीन है। | ना बाबा, झूठ क्या मैं समझ-बूझ कर बोल रहा हूँ, कोई बोलवा रहा है । भट्टिनी के प्रति मेरी पूज्य भावना है, यह ठीक बात है।' | ‘हाँ; तू अब ठीक कह रहा है । भुवनमोहिनी का साक्षात्कार पाकर भी तू भटकता फिर रहा है, पगला ! देख रे, तेरे शास्त्र तुझे धोखा देते हैं। जो तेरे भीतर सत्य है, उसे दबाने को कहते हैं; जो तेरे भीतर मोहन है, उसे भूलने को कहते हैं; जिसे तू पूजता है, उसे छोड़ने को कहते हैं । मायाविनी है यह मायाविनी, तू इसके जाल में न फस । समस्त पुरुषों को भरमा रही है, स्त्रियों को सता रही है, माया का दर्पण पसारे है। तू उसे नहीं देखता, मैं देख रहा हूँ। तुझे देख कर वह हँस रही है । | मैं मुग्ध-सा बना• बाबा की ओर देख रहा था। उनका प्रत्येक वाक्य मेरे अन्तस्तल में उथल-पुथल मचा देता था, जैसे वर्षों की गन्दगी साफ़ हो रही हो । बाबा की बातें जितनी ही विचित्र थीं,