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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाया भट्ट की अात्मकथा ६६ उतनी ही भेदक भी । थोड़ी देर तक अभिभूत-सा बना रहने के बाद मैंने हाथ जोड़ कर पूछा-‘क्यों बावा, मैंने जो-कुछ देखा है, वही घटने वाला है क्या ? बाबा ने निर्भयता के साथ कहा–'तो बुरा क्या है रे ? इसके झांसे में क्यों आता है ? घटने न दे, कितना अानन्द अर जायरा ! तू भूलता है, पागल ! इसे लीला में रस मिलता है न ? अच्छा ठीक बता, तू उस लड़की को क्या समझता है ? ‘धिक मूर्ख, कुछ बता न । जो बात तेरे मन में पहले आवे, वही । कह जा। “वह पवित्रता की मूर्ति है, आर्य ! “तू पशु नहीं है । मैं कुछ भी समझ न सका। इसी समय महामाया नामक भैरवी श्राई' । बाबा ने उनसे कहा---‘महामाया, यह पशु नहीं जान पड़ता; किन्तु वीर भी नहीं है। अमंगल से डरा हुआ है । इसे आज का प्रसाद देना । अमंगल से इसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है ।

  • महामाया हरा-भर ठिठक कर खड़ी रहीं। फिर विनीत भाव से

बोलीं--'अधिकारी है, आर्य १ | बाबा फिर हँसे । “तुम भी अभी उसके जाल से नहीं निकलीं, महामाया ! कह तो दिया, पशु नहीं है । अधिकारी नहीं होगा, तो क्या कर लेगा ? तुम्हें बदनाम करता फिरेगा, यही न १ डरती हो । दुत् पगली, डरती है ? | महामाया ने कहा---जो आज्ञा, आर्य ।। | बाबा ने कहा-‘ठहरो महामाया, तुम्हें प्रत्यय दिला दें।--- यह कह कर उन्होंने मुझे पास बुलाया । नजाने फिर क्या देखने को मिले, यह सोच कर मैं डरता-डरता उनके पास गया। उन्होंने मेर