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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१०३ बाण भट्ट की आत्म-कथा ‘जब तक तुम पुरुष और स्त्री का भेद नहीं भूल जाते, तब तक तुम अधूरे हो, अपूर्ण हो, असक्त हो । तुम और मैं का भेद तब तक तुम से निरन्तर चिपटा रहेगा। अगर तुम में नैरात्म्य-भावना की प्रवृत्ति होती, तो शक्ति के बिना भी साधना चल सकती । तुम में वह प्रवृत्ति नहीं है । पर मैं अपनी ओर से यह साधना तुम्हारे सिर लादना नहीं चाहता। तुम्हारी रुचि हो, तो स्वीकार करो । देखो, न तो प्रवृत्तियों को छिपाना उचित है, न उनसे डरता कर्त्तव्य है और न लज्जित होना युक्तियुक्त है । इतनी बात गाँठ बाँध लो, फिर गुरु के उपदेश पर चलते रहो । आज तुम चक्र में एकत्र वैठ सकते हो ।' विरतिवज्र ने साष्टांग प्रणति के साथ श्रादेश अंगीकार किया । उनके चेहरे से स्पष्ट ही लक्षित हो रहा था कि उनके भीतर अशान्ति है, वे उसे अपनी शक्ति-भर दबा रहे हैं। गुरु को प्रणाम करने के बाद वे मेरी ओर फिरे । अब की बार चाँदनी ठोक उनके मुख पर पड़ी। अहा, कैसा कमनीय मुख है ! क्षण-भर के लिए लाल चीवर से लिपटे विरतिवज्र को देख कर मेरे मन में धूर्जट की नयनाग्नि-शिखा में वलयित मदन देवता का स्मरण हो अाया। अस्थान में वैराग्य का उदय हुआ है । विद्युल्लता में चन्द्रमण्डल उलझ गया है । सांध्य किरणों में पुण्डरीक पुष्प फंस गया है। उषःकालीन आकाश-मण्डल में शुक्र ग्रह स्थिर हो गया है । मदन-शोक से व्याकुल वसन्त ने वैराग्य ग्रहण किया है । अहा, ऐसा भी क्या सम्भव है ? विरतिवज्र ने जिज्ञासा- भरी दृष्टि से मुझे देखा। उन्हें मेरा वेश इस समाज का विरोधी जान पड़ा और मुझे उनका रूप । बाबा ने ही मध्यस्थता की-परदेशी ब्राह्मण हैं, विरति ! साधना-गृह में आश्रय लिया था। महामाया इनसे अप्रसन्न हैं । अभी वे जाल से निकल नहीं सकी हैं। विकट है उसे मायाविनी का जाल, दुरतिक्रम्य है उसका विधान । महामाया अभी उलझी हुई हैं। ये अमंगल से डरते हैं, मोह है अभी, शीघ्र ही कट