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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा जायगा । जन्म-जन्मान्तर का संस्कार है, मिटते-मिटते वर्षों लग जायेंगे। पशु नहीं हैं, निकल चलेंगे । महामाया प्रसाद देंगी इन्हें । वे भी प्रसन्न होंगी, ये भी अभीत होंगे।' इतना कहने के बाद बाबा ने आकाश की। ओर देखा । बोले--समय ही आया है, विरति, सुधापात्र देना ज़रा ! विरति ने पात्र बढ़ा दिया। बाबा ने ऊपर मुँह करके पुकारा–‘माया- विनी, मायाविनी ! और फिर गट-गट कर के पी गए । थोड़ी देर तक एक अद्भुत मस्ती की दशा में झूमते रहे और फिर उठ खड़े हुए। हम दोनों भी उठ गए । विरति के साथ वे साधना-गृह में चले गए और मुझे थोड़ी देर बाद आने का आदेश किया। चलते-चलते कहते गए---‘किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मन्त्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं । मन्त्र याद है न १५ ‘हाँ शार्य ! 'थोड़ी देर बाद बिना किसी के बुलाए निडर होकर आ जाना । भला ! हाँ, आर्य । बाबा के चले जाने के बाद मैंने सोचने का अवसर पाया । यह कहाँ आ फँसा हूँ । बाबा की बातों का मतलब क्या है ? महामाया यदि स्वयं उलझी हुई हैं, तो उनके प्रसाद को निष्ठापूर्वक क्यों ग्रहण करू १ पर बाबा ने तो ऐसा ही आदेश दिया है। बाबा के प्रभाव से मैंने जो-कुछ देखा, वह क्या सत्य है १ भट्टिनी इस समय निरापद हैं। न १ निपुणिका को क्या अवस्था है ? क्या मैं भट्टिनी की ही पूजा का अधिकारी हूँ ? कैसा कैसा आश्चर्य है ! इतनी सीधी बातें मेरे मन में इतनी हलचल क्यों पैदा कर रही हैं १ मुझे फिर एक बार ऐसा लगा कि चक्कर आ जायगई। बाबा का मन्त्र थोड़ी देर तक जपते रहने में ही कल्याण था । मैं निष्ठापूर्वक जपने लगा । एक मुहूर्त के बाद भु के अकारण ऐसा प्रतीत हुआ कि बाबा बुला रहे हैं। मैं साधना-गृह की