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बाण भट्ट की आत्म-कथा

ओर अभिभूत की भाँति चल पड़ा । प्रांगण-गृह के द्वार पर से ही मैंने अत्यन्त शान्ति और मृदु कण्ठ से यह श्लोक उच्चारित होते सुना : दाय दक्षिणकरेण सुवर्ण इन्दुग्धाश्नपूर्ण मितरेण से रत्नपात्रम् भिक्षान्नदाननिता नवहेमवणभम्बा भजे सकलभूषण भूषितांगम् । कण्ठ महामाया का था। मैंने अनुमान से समझा कि जब अन्न-पूर्णा का ध्यान-मन्त्र पढ़ा जा रहा है, तो निश्चय ही कुछ भोजन का व्यापार चल रहा है। परन्तु भीतर जाने पर जो-कुछ देखा, उसका भोजन से केवल दूर का ही सम्बन्ध था। एक चक्राकार मण्डल में पाँच व्यक्ति बैठे हुए थे । कौलाचार्य अघोरवज्र और महामाया भैरवी प्रायः सटकर बैठे थे ! साधक भैरवों की दूसरी जोड़ी भी ज़रा दूर हट कर उसी प्रकार बैटी हुई थी। विरतिवज्र अकेले ही एक सिरे पर पद्मासन बाँध विराजमान थे । कुएँ के पास अपने निर्दिष्ट स्थान पर मैं बैठ गया। वहाँ से बाबा और महामाया बिल्कुल सामने पड़ते थे । सभी साधकों के पास एक-एक पानपात्र थे और सभी साधक लाल वस्त्र से ढंके हुए थे। किन्तु बाबा के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था। पहले जो छोटा-सा चिथड़ा था, वह भी न-जाने कब खिसक पड़ा था। केन्द्रस्थल में लाल कपड़े से बँका हुआ कारण ( मदिरा ) से भरा पात्र था और उसके ऊपर अष्टदल कमल के आकार का कोई पात्र रखा हुआ था। साधक लोग जप में व्यस्त थे । बाबा कुछ भी नहीं कर रहे थे । एक अद्भुत आत्म-विस्मृति-सी अवस्था में दिखाई दे रहे थे। उनका सारा शरीर निवात-निष्कम्प दीप-शिखा की भाँति स्थिर और प्रशान्त था। उनके मुखमण्डल पर ज्योत्स्ना बरस रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि समाधिस्थ शिव के उत्तमांग पर गंगा की बेवल धारा सहस्रधार होकर झर रही है। मैंने इस बार महामाया को अच्छी तरह देखा। उनका मुखमण्डल कमल-कोरक के समान लम्बा-सा था। उस पर ललाटपट्ट अष्टमी के चन्द्र के समान अायत