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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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बणि भट्ट की आत्म-कथा पी गए । साधकों ने भी वैसा ही किया। थोड़ी देर तक करवीर पुष्पों के सौरभ और गुग्गुलु-धूम के साथ मिलकर कार-सौरभ ने मेरे मन और प्राण दोनों की व्याकुल कर दिया । साधकों में कोई भी विचलित नहीं हुआ । जप चलता रहा। अन्यान्य साधकों ने पान के समय दाहिने हाथ से कुछ विशेष प्रकार की मुद्राएँ धारण कीं; पर बाबा यथायूर्व रहे। उन्होंने न मन्त्र पढ़ा, न मुद्रा धारण की और ने कोई अनुष्ठान ही किया । वे कैलास-शिखर पर समाधिस्थ भगवान त्रिनयन समान शान्त-निश्चल बैठे रहे। साधकों ने क्रमशः द्वितीय, तृतीय पात्रों का आवाहन किया। सात बार यों ही हुआ । पान-मुद्रा-जप, पान-मुद्रा-जप, पान-मुद्रा जप ! दूसरे भैरव-युगल कुछ चंचल दिखाई दिए । महामाया और विरतिवज्र यथापूर्व अनुष्ठान में लगे रहे । मेरा सिर भन्नाने लगा। इस बार बाश ने अखें खोलीं। उनके मानस में कोई चांचल्य नहीं था, सिर्फ एक बार ताक कर उन्होंने फिर समाधि ली । भैरव-युगल कुछ अधिक चंचल हुए। बाबा अघोर भैरव ने प्रथम बार शान्त-स्फुट स्वर में श्रादेश दिया--‘शान्ति मन्त्र पाठ करो । महामाया और विरतिवज्र ने बड़े मनोहर कण्ठ से शान्ति-पाठ किया। मुझे सभी मन्त्र याद नहीं हैं: पर भाव उनके बड़े ही मनोरम थे । प्रत्येक मन्त्र के बाद विरतिवज्र अकेले ही एक श्लोक पढ़ते थे । बारबार सुनने के कारण वह मुझे अब भी स्मरण है : शिवमस्तु सर्वजगतः परहित-निरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु शान्ति सर्वे लोकः सुखी भवतु ॥ सर्वे लोकः सुखी भवतु ॥ भैरव-युगल प्रकृतिस्थ हुए । अनुष्ठान फिर आगे बढ़ा । ग्यारहवें पात्र की समाप्ति के बाद साधकों के हाथों में विशेष प्रकार की प्राकृ -- -- २ नाभानव का अन्तिम श्लोक भी प्रायः ज्यों का त्यों ऐसा ही है।