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बाण भट्ट की आत्म-कथा

तियाँ दिखाई देने लगीं । चन्द्रमा की ज्योत्स्ना हट चुकी थी । आँगन का कुट्टिम अन्धकार से, वायुमण्डल मदिर-गन्ध से और नभोमण्डल गुग्गुलु-धूम से परिपूर्ण था । मेरा मस्तिष्क यह सब सहने का एकदम अभ्यस्त नहीं था । मुझे ऐसा लगा कि आकाश से विकटाकार भूतबैताल उतर रहे हैं और घट के चारों ओर खड़े हो रहे हैं। साधकों की चक्राकार भण्डली कुछ छायाचित्रों-सी दिखने लगी । रह-रह कर उन छायाचित्रों में विक्षोभ और अान्दोलन होते रहे। मैं अपने को अधिक नहीं संभाल सका । सिर धूम गया और मैं निःसंज्ञ होकर कब लुढ़क गया, इसका मुझे कुछ भी पता नहीं चला।। थोड़ी देर बाद मेरी चेतना लौट आई । मुझे मस्तक की ओर से कुछ शीतलता का अनुभव हुआ । यद्यपि मेरी अाँखें उस समय भी बन्द' थीं, तो भी मैंने प्रत्यक्ष देखा कि नभोमड़ल के मध्य-भाग से आनन्द भैरव उतर रहे हैं। उनके शरीर में कोटि-कोटि सूर्यों की प्रभा हैं और फिर भी वे कोटि-कोटि चन्द्रमा से अधिक शीतल लग रहे हैं । अमृत-समुद्र में उद्भूत ब्रह्मा के कमल पर उठ कर वे सुधा-धवल वृषभ पर आरूढ़ हुए। उनके कण्ठ की नीलिमा इस समस्त श्वेत पृष्ठ भूमि में ऐसी लग रही थी, मानो कपरगिरि पर नीलमणि का छोटा अंकुर निकल आया हो । वे अपने अठारह हाथों में घण्टा, डमरू, पाश, अंकुश, खद्दा अादि विविध शत्रों को और एक हाथ में अभयमुद्रा को धारण किए हुए थे । आनन्द भैरव के साथ ही आनन्द भैरवी सुरादेवी का पदार्पण हुश्रा । आनन्द भैरव के समान इनके भी पाँच मुख, तीन नेत्र और अठारह भुजाएँ थीं । उनका रंग हिम, कुन्द और चन्द्र की भाँति धवल था। अखि चंचल खंजरीट की भाँति लील - परायण थ । प्रवाल के समान रक्त श्रेष्ठ-पुटों में मन्द-मन्द स्मित सदा विराजमान था । वे अानन्द की मूर्ति, मस्ती की प्रभव-भूमि, सौन्दर्य का विश्रान्ति-स्थल, अभिा का प्रवास-गृह और यौवन का