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बाण भट्ट की आत्म-कथा

मूर्त विग्रह दिखाई दे रही थीं । आनन्द भैरव के इशारे पर उन्होंने मेरा मस्तक स्पर्श किया । मुझे ऐसा लगा, मानो अमृत-तूलिका से किसी ने मेरे सारे शरीर को विलित कर दिया हो । आनन्द भैरवी ने मेरा सिर धीरे-धीरे अपने उत्संग में ले लिया। मेरी सारी जड़िमा क्षण-भर में विलुप्त हो गई। आनन्द भैरवी ने मन्द स्मितपूर्वक मेरे नयनों और कपोल-प्रान्तों को अपने अमृताद्र हाथों से पोंछ दिया। मेरी आँखें खुल गई। तब भी मेरा मस्तक भैरवी की गोद में था । मैंने अभिभूत की भाँति कहा---‘अपराध क्षमा हो, अम्ब ! आज मैं कृतार्थ हूँ । भैरवी के मुख पर आनन्द की धारा बह गई। उन्होंने फिर एक बार भैरव और सुरादेवी का ध्यान-मंत्र पढ़ा। अब मैंने समझा कि मेरा मस्तक महामाया की गोद में है। उनका कण्ठ-स्वर स्पष्ट, मधुर और करुण था। उनकी अखिों में मातृ स्नेह छलक रहा था। उनके मुख-मण्डल से एक प्रकार की स्निग्ध प्रभा निकल रही थी। वे कुछ परिवर्तित हो गई थीं। मैंने कृतज्ञ भाव से कहा-- ‘मतिः अाज मैं कृतार्थ हुआ। अत्यन्त बाल्य वयस में मैंने अपनी माता खो दी थी। पिता का सुख भी मैं बहुत दिनों तक नहीं देख सका। मातृ-पितृहीन अभागा बाण भट्ट वात्स्यायन-वंश का कलंक ही सिद्ध हुआ है । आज मेरा जन्म सफल है, जो मैं आनन्द भैरव का अमृतायमान स्नेह-स्पर्श पा रहा हूँ। मातः, मेरा अपराध क्षमा हो, अमंगल अपगत हो, कल्याण प्राप्त हो । भैरवी ने स्नेहपूर्वक कहा---'कल्याण हो, वत्स ! महामाया का प्रसाद ग्रहण करो । इस बार मैंने अच्छी तरह से अखें खोलीं । महामाया ही तो हैं ? धारासार वर्षा के बाद शिथिल-वृन्त अशोक-पुष्प के समान उनके नयन र होने पर भी श्राद्र थे, तुहिन-सिक शेफालिका-कुसुमनाल के समान उनका नासावंश पिंगल होकर भी मनोरम था, विद्युत्-शिखा-संवलित मेघ-मण्डल से आच्छादित चन्द्र-मण्डल की भाँति उनका ललाटपट्ट