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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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बाणु भट्ट को अात्म-कथा रही हों । उनके रस्किम नयन-कोरकों में अश्रु-कण दिखाई दिए। वे कुछ व्याकुल-सी लगीं । फिर बोलीं-जा, जहाँ जाना था, वहाँ जा । मुझे दूर जाना है। और फिर बिना प्रतीक्षा किए चलने को प्रस्तुत हो गई। मैंने हड़बड़ा कर प्रणाम किया और आग्रहपूर्वक पूछा‘मतिः, वे विरतिवज्र कौन हैं ?! । उनका श्रश्रम कहीं हिमालय के पाद देश में है। वे सौगत अवधूत अमोघवज़ के शिष्य हैं; पर सौगत-तन्त्र में अनधिकारी समझ कर गुरु ने उन्हें हमारे सम्प्रदाय में भेज दिया है । ‘अनधिकारी क्यों है, मातः १ त्रिभुवनमोहिनी की माया है। वे शक्ति-हीन हैं। उनकी शक्ति उनकी प्रतीक्षा कर रही है। वाराणसी के जनपद में उनका जन्म है, उनकी शक्ति भी वहीं है । . महामाया भैरवी की बात सुनते ही मुझे वाराणसी-जनपद की वह वृद्धा याद आ गई । विरलिवज्र का मुख उससे मिलता-जुलता था । अहा, यही क्या उस बुढ़िया का लाल था ? फिर क्या इस साधक से साक्षात्कार नहीं होगा ? मैं चिन्तामने थोड़ी देर तक खड़ा रहा। महामाया तब तक दूर निकल गई थीं। मैं भी तेजी से बाहर निकल आया। उस समय आकाश वृद्ध कपोत के पक्ष के समान धूम्र हो गया था । चन्द्रमा कटी हुई पतंग की भाँति अस्तशिखर पर ढल चुका यो । तरुण अरुण की पीताभ रश्मिय स्वर्ण-शलाका की बनी झाड़, के समान पूर्व गगन के नक्षत्रों को झाड़ रही थीं । महारुद्र के पिनाक की भाँति धनुराशि प्रकाश के पश्चिम-मण्डलार्द्ध में प्रत्यंचित हो चुकी थी और क्षीण-भूयिष्ठा रजनी संन्यास लेने के लिए एक-एक करके अपने नक्षत्रालंकारों को खोल रही थी। चण्डी-मण्डप तुहिनसिक्त हो गया था और सामने के मैदान की दूर्वावलियाँ अलस-शिथिल भाव से पड़ी दिख रही थी। मैं गंगा-तट की ओर चल पड़ा ।