पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११७
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की अाम-कथा में ऐसा उड़ा हुआ था कि दिशाएँ रंगीन हो उठी थीं और नगरी के राजपथ केशर-मिश्रित पिष्टातक (अबीर) से इस प्रकार भर गए थे, जैसे उन पर उषा की छाया पट्टी हुई हो। पौरजनों के शरीर पर शोभमान अलंकार और सिर पर धारण किए हुए अशोक के लाल फूल इस लाल-पीले सौन्दर्य को और भी बढ़ा रहे थे । ऐसा जान पड़ता था, नगरी के सभी लोग सुनहरे रंग में डुबो दिए गए हैं । समृद्धिशाली भवनों के सामने वाले श्रवन में धारायन्त्रों ( फ़व्वारों ) से पानी उत्क्षिप्त हो रहा था और उसमें अपनी-अपनी पिचकारी भरने की होड़-सी मची हुई थी। इन स्थानों पर पौर- विलासिनियों के निरन्तर आते रहने से उनके सामन्त के सिन्दूर और कपोल के अबीर झरते रहते थे और सारे कुट्टिम (फर्श) लाल पिष्टतक- पंक से भर कर सिन्दूरमय हो उठे थे । इस प्रमत्त रंग-वर्षा से बचने के लिए मैंने अनेक कौशल किए, रास्ता छोड़कर संकरी गलियों में फैंस गया और उल्टा-सीधा चक्कर काटता हुआ राजमार्ग से कछ दूर चला गया । यहाँ का उत्सव जितना ही मादक था, उतना ही मनोहर । स्थान-स्थान पर पण्य-विलासिनियों का नृत्य हो रहा था । मन्द-मन्द भाव से अस्फाल्यमान आलिंग्यक नामक वाद्य से, मधुर शिजनकारी मंजुल वेणु-नाद से, झनझनाती हुई झल्लरी की ध्वनि से, कलकांस्य और कोशी ( कोसे का दण्ड और जोड़ी) के मनोरम क्वणन से, साथ-साथ दिए जाने वाले उत्ताल ताल से, निरन्तर ताड़न पाते हुए तन्त्रीपटह की गजार से और मृदु-मन्द झंकार के साथ झंकृत अलावु- वीणा की मनोरम ध्वनि से वे नृत्य जितने ही आकर्षक थे, उतने ही अश्लील रासक पदों के रुग्ण श्रृंगार के कारण विकर्षक जान पड़ते थे । विटों के कण-कुहर में मानो ये अश्लील पद अमृत संचार कर रहे 'सु० रत्नावली', १म अंक