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बाण भट्ट की आत्म-कथा

११८ बाणु भट्ट की आत्मकथा थे। कैसा आश्चर्य है, एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न श्रोताओं को कितने विपरीत ढङ्ग से प्रभावित कर रही थी । सौन्दर्य को भी विधाता ने कहाँ ला पटका है । इन युवतियों के कण में नव-कर्णिकार के पुष्प झूल रहे थे, चल-नील अलकों में अशोक स्तचक विराजमान थे और कपोल-पालि पर वेपथुःविहीन अंगुलियों की अंकित सुडौल मंजरियाँ झलक रही थीं । ललाट कॅकम-गौर कान्ति से वलथिन वे काश्मीर- किशोरियों-सी दिख रही थीं। नृत्य के नाना करणों में जब वे अपनी बाहु-लता को प्रकाश में उत्क्षेप करती थीं, तो ऐसा लगता था कि उनके समुत्सुक वलय उछल कर सूर्य-मंडल को बन्दी बना लेंगे। उनकी कनक-मेखला की किंकिड़ियों से उलझी हुई कुरंटक-माला उनके मध्य-देश को घेरती हुई ऐसी शोभित हो रही थी, मानो रागाग्नि ही प्रदीप्त होकर उन्हें वलयित किए है। उनके मुख-मंडल से अबीर और सिन्दूर की छटा विलुरित हो रही थी और उस लाल-लाल कान्ति से अरुणायित कुएडल-पुत्र इस प्रकार शोभ रहे थे, मानो मदन- चन्दन-द्र म की सुकुमार लताओं के विलुलित किसलय हो । उनके नीले, वासन्ती, चित्रक और कौसुम्भ वस्त्रों के उत्तरीय जब नृत्य-वेग के घूर्णन से तरंगायित हो उठते थे, तो वे शृगार-रस की चटुल- वीचियों के समान उल्लसित हो उठती थीं । घनपटह-ध्वनि की पृष्ठ- भूमि में सात्विक अभिनय से जब वे रोमांचित हो उठती थीं, तब सहृदय के चित्त में दुर्दिन के गर्जनमुखर मेघों की छाया में कुसुम-धूलि की उदगिरण करने वाली केतकी लता का स्मरण हो अतिा था। वे मद की भी मदमत्त बना रही थीं, राग को भी रंग रही थीं, आनन्द को भी आनन्दित कर रही थीं, नृत्य को भी नचा रही थीं और उत्सव को भी उत्सुक कर रही थीं। उनमें नारी-सुलभ सुकुमार | 'तु० ‘हर्षचरित', ४थे उच्छ्वास