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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा ११६ भावना का लोप हो चुका था । वे उजड़े हुए देव-मन्दिर की भाँति, रास्ते में फेंकी हुई प्रतिमा की भाँति, कीचड़ में धंसी हुई मालती-माला की भाँति अपनी प्रतिष्ठा खो चुकी थीं, अपना सम्मान भूल चुकी थीं अौर अपनी शुचिता म्लान कर चुकी थीं। मैं नारी-सौन्दर्य को संसार की सब से अधिक प्रभावोत्पादिनी शक्ति मानता रहा हूँ; परन्तु यह क्या देख रहा हूँ १ महामाया ने कहा था : नारी की सफलता पुरुष को बाँधने में है, सार्थकता उसे मुक्ति देने में । यह सफलता है या सार्थकता ? मेरे मन में रह-रह कर यही ध्वनि निकलती रही कि नारी- सौन्दर्य यहाँ बन्ध्य है, निष्फल है, ऊषर है। क्यों ऐसा हुआ है इस महान् शक्तिशाली तत्त्व से बड़ी भी कोई शक्ति है क्या, जिसने इसे इस तरह हीनदर्प बना दिया है ? अवश्य होगी । मेरा अनुमान है, वह शक्ति सम्पत्ति ही हो सकती है। | मैं नाना गलियों में भटकता हुआ छोटे राजकुल के सामने आ उपस्थित हुआ । द्वार पर नाग नहीं था, मेरा हृदय धक् से धड़क गया । क्या उस रात्रि की असावधानी के अपराध में नाग को बन्दी बना लिया गया है १ या वह शूली-विद्ध हो गया १ छोटे राजकुल में उत्सव का कोई समारोह नहीं दिखाई दिया। एक मृत्यु का सन्नाटा समस्त वायुमण्डल को अभिभूत कर रहा था । इस समय मुझे वह शुक्ल-केश वृद्ध बाभ्रव्ये याद आया। बेचारे की न-जाने क्या गति हुई होगी । भट्टिनी के निकल जाने में उसे ज़रूर सहायक माना गया होगा। छोटे महाराज ने उस वृद्ध की खाल खिंचवा ली होगी। मेरा चित्त ग्लानि और दुःख से अभिभूत हो गया । मुझमें अगर पक्षी बनने की शक्ति होती, तो निश्चय ही उड़ कर अन्तःपुर में फँस जाता और वहाँ की बातें जान आता । राजपथ के एक स्थान पर जहाँ राजकुल का विशाल उद्यान समाप्त होता था, मैं ठिठककर खड़ा हो गया ।