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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१२० बाण भट्ट की आत्म-कथा वहाँ एक विशाल वैकुल-वृक्ष था, जो अपने मध्यगन्धी सौरभ से मस्तिष्क को व्याकुल बना रहा था। मुझे ऐसा लगा कि राजकुल का भीतरी समा- चार जाने बिना आगे बढ़ना पाप है; पर समाचार पाना असम्भव था । मैं थोड़ी देर तक खड़ा रहा। चित्त ग्लान, लज्जित और खिन्न था । इसी समय अत्यन्त मृदु और स्पष्ट ध्वनि में एक सारिका कुछ बोलती हुई सुनाई दी। मुझे उसके उलझे हुए अक्षर वाले वाक्य को समझने में क्षण-भर का भी विलम्ब नहीं हुआ है वह बहुत मीठे सुर में बोल रही थी-‘स में स्वयंभूर्भगवान् प्रसीदतु ।' मेरे हृदय में विद्युत् की धारा-सी बह गई । एक नवीन शक्ति ने समस्त शिराओं को उत्तेजित कर दिया। मैं अपने-आप से ही बोल उठा-'निश्चय ही यह भट्टिनी की सारिका हैं । मैंने इधर-उधर ताका और अपनी मूर्खता पर पछता कर रह गया । कोई सुनता, तो न-जाने क्या कहता। सारिका ने थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर सुनाया---‘जा अभागी, भाग उt इस पाप-अन्तःपुर से। तेरी भट्टिनी भाग गई, मैं मरने जा रहा हूँ ! हाय, थे तो वाभ्रव्य के वाक्य जान पड़ते हैं । मुखरा सारिका ने अपनी मुक्ति का घोषणा-पत्र कंठस्थ कर लिया है। मैं चुपचाप साँस रोक कर खड़ा हो गया । जाने अब क्या सुनने को मिले । सारिका एक क्षण चुप रह कर फिर सुरीली आवाज़ में गाने लगी-‘स में स्वयंभूर्भगवान् प्रसीदतु' और फिर उड़कर राजकुल के वृक्ष-संकुल उद्यान में अन्तर्धान हो गई। मेरा चित्त उद्वेग से व्याकुल हो गया | साहित्यशास्त्र में पढ़ा था कि शुक-सारिका और शिशु के मुख से अन्तःपुर की कहानी सुनना भाग्यवानों को ही प्राप्त होता है। शास्त्र का यह कैसा निष्ठुर १'रत्नावली', २ अंक की घटना से तुलनीय दुर्वा कुसुम-शर-व्यथां वहन्या, कामिन्या यदभिहितं पुरः सखीनां ।