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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की अात्म-कथा १२१ परिहास है ! अन्त:पुर की इस कहानी को सुनाकर सारिका ने मेरे भाग्य की कैसी विडम्बना दिखाई है । हा निर्दोष बाभ्रव्य, तुम्हारा प्राणान्त हो गया और दोषी बाण अभी जीता है ! भट्टिनी ने क्या कभी इन गरीबों की चिन्ता की है ? वे जब सुनेंगी कि अन्तःपुरिका के पिता के समान पूज्य बाभ्रव्य ने किस परिताप के साथ उनकी सारिका का बन्धन मोचन किया था, तो उनका कुसुम-कोमल हृदय क्या रसूख नहीं जायगा ? अाज छोटे राजकुल का अन्तपुर मौन है । आज उसके क्रीड़ा- पर्वत पर सुन्दरियाँ अपने वलय-ध्वनि से उन्मदे मयूरों को नचा रही होंगी । आज उसके क्रीड़ा-सरोवर के मृदंग ने चक्रवाक दम्पति को अकारण उत्कण्ठित नहीं किया होगा । आज अन्तःपुर की कुट्टिम- भूमि पादालकों से लाल नहीं बन सकी होगी । अाज ‘मित्तियों के अंगद्दारों ने महोत्सव को मंगलकलशे से सुसजित-सा नहीं कर दिया होगा, चंचल चक्षुओं की किरणों से सारा दिन कृष्णसार मृTों से परिपूर्ण की नजरों से दिखेगा, भुज-लताश्रों के विक्षेप से जीवलोक मृणाल-वलय से वलयित नहीं जान पड़ेगा। शिरीष कुसुम के स्तवकों के कर्णपूरों से अन्तःपुर की धूप शुक-पिच्छ के रंग में नहीं रंगी होगी, शिथिल धम्मिल्ल से चुए हुए तमाले-पत्रों ने अन्तरिक्ष को कजलायमान नहीं किया होगा, आभरणों के रणत्कार ने दिशाओं में किंकणी नहीं बाँध दी होगी। छोटे राजकुल का अन्तःपुर श्रीजन-जाने कैसी भीति और आशंका का शिकार बना होगा । नाना देशों की अपहृता, ललिता अन्तःपुरिकाएँ वर्ष में एक दिन अनन्द का उत्सव मनाती हैं; हाय, आज वह भी बन्द होगा ! मैंने एक भट्टिनी का उद्धार किया है सही; तद्भूयः शुक-शिशु-सारिकाभिरुक्त, धन्यानां श्रवणपथातिथिस्वमेति ॥ (रत्नावली', ३।३३)