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बाण भट्ट की आत्म-कथा

मणि भट्ट की आत्मकथा पर मुझे क्या मालुम है कि इस अन्तःपुर में और कितनी भट्टिनियाँ हैं। और ऐसे अन्तःपुरों की संख्या यहीं तो समाप्त नहीं हो जाती । अभी जो उच्छङ्खल नृत्य देख आया हूँ और यहाँ जो भयंकर भीति- भाव लक्ष्य कर रहा हूँ, इन दोनों ही दशाशों में अपाततः कितना अभेद है; पर सत्य यह है कि दोनों ही जगह इस सृष्टि की सब से बहु- मूल्य वस्तु अपमानित हो रही है। क्यों ऐसा हो रहा है ? क्या स्त्रियों ने स्वयं यह जाल बुना है और अब स्वयं उलझ गई हैं ? मैं जिस रास्ते पर जा रहा हूँ, वहाँ से कोई मदोन्मत्त उत्सवकारी दल निकले गया है। कालिदास ने उज्जयिनी में प्रातः-काल जो दृश्य देखा था, वह मैं स्थाण्वीश्वर में मध्याह्न को देख रहा हूँ। ठीक उसी प्रकार गमन के उत्कम्पा-वश यहाँ भी सुन्दरियों के केश से मन्दार-पुष्प झड़े हुए हैं, कान से सुनहरे कमल खिसक कर भू-लु ठित हो रहे हैं, हृदय देश पर बार-बार आघात करने वाले हारों से बड़े-बड़े गन्धरज-कुसुम टूट कर गिर गए है; परन्तु फिर भी मैं इसे प्रेमाभिसार का मार्ग नहीं समझ रहा हूँ । इस रास्ते से उल्लास और उन्माद चाहे गए हों, अनुराग और श्रौत्सुक्य नहीं गए । यह सब क्यों हो रहा है ? यह क्या धर्म है ? क्या न्याय है ? मेरा चित्त कहता है कि कहीं न कहीं मनुष्य-समाज ने अवश्य ग़लती की है । यह उन्मत्त उत्सव, ये रासक गान, ये शृङ्गक- सीत्कार, ये अबीर-गुलाल, ये चर्चरी और पटह मनुष्य की किसी मान- सिक दुर्बलता का छिपाने के लिए हैं, ये दुःख भुलाने वाली मदिरा हैं, कालीदास के निम्नलिखित श्लोक (मेघ०, ६८) से सुखनीयः --- गत्युकम्पादलक-पतितैयंत्र मन्दारपुष्पैः । पत्रच्छेवैः कनकमलैः कृ-थिर्भशिभिश्च । मुक्ताजालैः स्तनपरिचितच्छिअसूत्रेश्च हारैः नैशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम् ।