पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१२३
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा १२३ ये हमारी मानसिक दुर्बलता के पर्दे हैं। इनका अस्तित्व सिद्ध करता है। कि मनुष्य का मन रोगी है, उसकी चिन्ता-धारा अविल है, उसका पारस्परिक सम्बन्ध दुःखपूर्ण है। मेरा मन इस दुवह चिन्ता-भार को ढोने में असमर्थ होता जा रहा था। शायद और थोड़ी देर रुकता, तो मैं चिल्ला उठता । चिन्ता के उत्कट वेश ने मेरे पैरों में चंचलता ला दी । मैं क्षिप्र गति से आगे बढ़ने लगा। नगर के राजपथ में उत्सव का वेग मन्द पड़े गया था। सौध-वातायन से अवसाद की हुचा निकल रही थी। नागरक-गृहों की परिचारिकाएँ शिथिल गति से गृह-कार्य में जुट गई थीं और विश्रामगृहों की सुगन्धित धूप-चर्चिकाएँ दिङमण्डल को सौरभ-सिक्त कर रही थीं । मैं जब कुमार कृष्णवर्धन के द्वार पर पहुँचा, तो मध्याह्न हो चुका था, सूर्यातप तीक्ष्ण हो चुका था और आकाशमंडल भी थक कर शिथिल-गात्र हो चुका था । कुमार मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । मैंने जब उन्हें अपने आने का संवाद दिया, तो वे स्वयं बाहर आ गए और प्रेमपूर्वक भीतर ले गए। कुमार का गृह बहुत स्वच्छ और सुन्दर था । दीवारे स्फटिक-मणि के समान स्वच्छ थीं । उनके ऊपरी हिस्से में बहुत उत्तम अलंकरण चित्र बने थे । उत्फुल्ल कमलों का एक अविरल प्रवाही सोत-सा अंकित था, जिसके बिन्दु-बिन्दु पर हंस, मत्स्य, गज और शादुल खोत की अभिमुख दिशा में लपकते हुए चित्रित थे। सारा ऊपरी हिस्सा एक सुलझी हुई कमलिनी-लता की धारा थी, जिसके प्रत्येक पत्ते में कोई-न-कोई जीवाकृति बन जाती थी । दरवाज़े के सामने वेस्सन्तर जातक का भावपूर्ण चित्र था। जो ब्राह्मण राजकुमार के पुत्र को दान- रूप में माँग रहा था, उसकी कातर मुखमुद्रा स्पष्ट ही फूट उठी थी; परन्तु राजकुमार और उनके पुत्र में जो सहज दानवीर भाव था, वह देखने ही लायक था। बड़ी देर तक मैं उस चित्र के लेखक की कला पर मुग्ध बना उसे देखता रहा। आजकल दीवार को चूने से पाट कर,