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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१२४ बाण भट्ट की आत्मकथा महिष-चर्म को घोंट कर लेप लगाने की जो प्रथा है, वह इस चित्र में नहीं दिखाई देती भी ; क्योंकि ऐसे भित्ति-पट्टों के लिए वज्रलेप के लगाने की प्रथा है, जो हवा में ठंडा होकर सूखता है। ऐसे पट्ट बाँस की नाली में लगे हुए ताम्र-तिन्दुकों के उन तूली-कूर्चकों के योग्य हो होते हैं, बछड़ों के कान के रोमों से बनते हैं। इस चित्र में स्पष्ट ही ऐसी रोम-तूलिकाएँ व्यवहृत नहीं हुई थीं, फिर भी भाव-प्रकाश की कैसी मनोहर कला थी। राजकुमार के पुत्र की कोमल-कान्त मुख- भंगिमा में आत्मदान का कैसा दृढ़ भाव था। मैं चकित होकर सोचता रहा कि मोम और भात में काजल रगड़ कर बनाए हुए रंगों से कैसा स्वर्गीय भाव फूट उठा है। क्या काजल, मोम और भात ऐसे स्वर्गीय भाव के उत्पादक हैं ? मेरा दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य का भक्तिभरा चित्त ही वह वास्तविक उपादान है, जिसने इस मनोहर दृश्य को प्रत्यक्ष कराया है। इस एक चित्र के अतिरिक्त और कोई भी चित्र उस गृह में नहीं था । कुमार के अासन के लिए एक छोटा- सा स्फटिक-पीठ था, जिस पर बहुत कोमल शय्या और उपाधान रखे हुए थे। कुछ और चन्दन की चौकियाँ भी उसी प्रकार सजी हुई र्थी । ये पंडितों और महात्माअों के बैठने के लिए थीं । कुमार ने आग्रहपूर्वक मुझे एक चन्दन-पीठिका पर बैठाया। जब तक मैं बैठ नहीं गया, उन्होंने स्वयं असिन नही ग्रहण किया। आसन ग्रहण करने के बाद कुमार ने भट्टिनी का कुशल-संवाद पूछा। मैंने संक्षेप में उत्तर दिया कि वे प्रसन्न हैं ; परन्तु कुमार अधिक सुनना चाहते थे । वे यथा सम्भव प्रत्येक मनोभाव को जान लेने के लिए उत्सुक थे, जो कल से लेकर आज तक भट्टिनी के चेहरे से प्रकट हुए हों । कुमार को क्या पता था कि मैं भट्टिनी को कितना


| | तु०-अभिलषितार्थं चिन्तामणि, ३