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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बेणि भट्ट की आत्मकथा भट्टिनी ने कल श्राचार्या से कहा है और उन्होंने मुझे बताया है । रहस्य समझने के बाद मेरा मुख मुरझा गया, कान तक की शिराएँ रक्त के वेगाधिक्य से झनझना उठीं, पैरों के नीचे की अाधार-भूमि खिसकती-सी जान पड़ी और दिमण्डल कुलातचक्र की भाँति घूम गया । मैं मूर्ख हूँ। भट्टिनी को मुझ पर भरोसा नहीं है । क्यों नहीं उन्होंने मुझसे यह बात कही ? क्या मैं भट्टिनी के एक इंगित पर अपने प्राण दे देने की प्रतिज्ञा नहीं कर चुका हूँ ? भट्टिनी मेरे ऊपर विश्वास भले ही करती हों, भरोसा नहीं रग्बतीं । अभागा बाण आज भी अभागा ही है। उस समय कुमार मेरे भोलेपन से आनन्द ले रहे थे । उनकी क्रीड़ा-चपल नयन-ताराएँ मेरे गिरते-पड़ते मनोभावों के भीतर घुसने की चेष्टा कर रही थीं। उनका समयमान मुखमण्डल मध्याह्न- कालीन नव मल्लिका की भाँति स्थिर अौर उत्फुल्ल दिखाई दे रही था। उनके वक्रिम प्रेक्षित-से विकंचित गंड-मंडल विकचमान पद्म- कोरक के पाश्र्वपालि की भाँति प्रसन्न दिख रहा था उन्हें मेरे मनः क्लेश में रस मिल रहा था । कुमार के मनोभाव को मैं समझ गया और अधिक देर तक बैठना उचित नहीं समझा ।। आज विचार करके देखता हूँ, तो मुझे अपने उस दिन के मनो- भाव पर आश्चर्य हो रहा है । कुमार ने जो बात बताई थी, उसमें इतना अधिक लज्जित और खिन्न होने की तो कोई बात नहीं थी। कुमार से चलने की आज्ञा माँगते ही वे हँस पड़े। बोले-‘बैठो भट्ट, तुमने बिल्कुल नहीं समझा । देवपुत्र-नन्दिनी तुम्हारी कृतज्ञता के बोझ से दबी हुई हैं । वे ऐसा धन संसार में खोजे नहीं पा रही हैं, जिसे देकर तुम्हारे उपकार का किंचिन्मात्र भी ऋण कस कर सके । वे क्या तुमसे क्षण-क्षण पर नए-नए श्रदेश पालन कराती रहेंगी १ तुम ही अगर कौशलपूर्वक उनकी मनोव्यथा जान लो, तो उनकी सेवा करने