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बाण भट्ट की आत्म-कथा

का अवसर पा सकते हो । वे हिमालय से भी अधिक महान् और समुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं । कुमार कृष्णवर्धन ऐसी बहन का भाई होने से गौरवान्वित है।' निस्सन्देह इस वाक्य से चित्त कुछ हल्का हुआ; पर एक अभिमान का ऐसा बोझ हृदय पर पड़ा हुआ था कि मैं उससे शीघ्र ही अपने को मुक्त नहीं कर सका । मुझे असह्य मालूम हो रहा था कि भट्टिनी की महत्ता और गम्भीरता के विषय में मुझे कोई उपदेश दे । मैंने फिर कुमार से चलने की आज्ञा माँगी । कुमार ने ज़रा व्यथित स्वर में कहा-“आज सायंकाल तुम्हें यहाँ से चल देना होगा, भट्ट ! राजनीति भुजंग से भी अधिक कुटिक है, असि-धारा से भी अधिक दुर्गम है, विद्युत्- शिखा से भी अधिक चंचल है। तुम्हारा और भट्टिनी को यहाँ तब तक रहना उचित नहीं है, जब तक अनुकूल अवसर न आ जाय । तुमने कल अपने को देवपुत्र- चन्दिनी का अभिभावक कहा था । तुम निश्चय ही इस महान् उत्तरदायित्व के योग्य हो ; परन्तु तुम्हें मालूम नहीं कि इस पद को पाकर तुमने अपने को राजनीति के कैसे आवत्त-संकुल तरंग में छोड़ दिया है । तुम्हारे मनोविकार बहुत स्पष्ट होते हैं, क्योंकि तुम में अशुचि कूटनीति का लेश भी नहीं है ; पर तुम्हें अपने को देवपुत्र- नन्दिनी का उत्तम अभिभाव बनना है। तुम झूठ से शायद घृणा करते हो, मैं भी करता हूँ ; परन्तु जो समाज-व्यवस्था झूठ को प्रश्रय देने के लिए ही तैयार की गई है, उसे मानकर अगर कोई कल्याण- कार्य करना चाहो, तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा। सत्य इस समाज-व्यवस्था में प्रच्छन्न होकर वास कर रहा है। तुम उसे पहचानने में भूल न करना। इतिहास साक्षी है कि देखी-सुनी बात को ज्यों का त्यों कह देना या मान लेना सत्य नहीं है । सत्य वह है, जिससे लोक का अत्यन्तिक कल्याण होता है । ऊपर से वह जैसा