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बाण भट्ट की आत्म-कथा

भी झूठ क्यों न दिखाई देता हो, वही सत्य है । तुम्हें देवपुत्र- नन्दिनी की सेवा इसलिए नहीं करना है कि देवपुत्र-नन्दिनी तुम्हारी दृष्टि में पूज्य और सेव्य हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी सेवा द्वारा तुम लोक का अत्यन्तिक कल्याण करने जा रहे हो। मैं तुमसे अाशा रखता हूँ कि उचित अवसर पर तुम न तो झूठ से झल्ला उठोगे और न ऐसे झूठ के बोलने में हिचकोगे हो, जिससे समग्र मनुष्य-जाति उपकृत होती हो ।' कुमार ने इतना लम्बा उपदेश देने के बाद एक बार खाँस कर गला साफ़ कर लिया । अपने को इस प्रकार श्रेष्ठ ज्ञानी के रूप में उपस्थित करने के कारण वे स्वयं ही कुछ लजित हो गए। मानो अपनी लजा को कुछ धो डालने के लिए ही वे फिर बोले-- 'मैं जो-कुछ कह रहा हूँ, उसको ठीक-ठीक समझ रहे हो न, भट्ट ? लोक-कल्याण प्रधान वस्तु हैं। वह जिससे सधता हो, वही सत्य है । आचार्य आर्यदेव ने सब से बड़े सत्य को भी सर्वत्र बोलने का निषेध किया है । औषध के समान अनुचित स्थान पर प्रयुक्त होने पर सत्य भी विर्ष हो जाता हैं । हमारी समाज-व्यवस्था हो ऐसी हैं कि उसमें सत्य अधिकतर स्थानों में विष का काम करता है । मैंने ने हाँ किया, न ना किया। केवल आश्चर्य के साथ उनकी ओर देखता रहा। कुमार को इस बात पर ग्लानि हुई कि वे मुझे अपनी बात ठीक-ठीक नहीं समझा सके । उनका मुख-मंडल उपरागग्रस्त चन्द्र- .. . -.--.-.--:- "तु०---सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यापि हितं वदेत् । यद् भूत हितमत्यन्त मेतत्सत्यं मतं मम । (महाभारत, शान्ति, २२६।१३) सुख-शून्यता पुण्यकामेन वक्तव्य मैच सर्वदा । औषधं युक्तमस्थाने गरलं ननु जायते ।। (चतुःशतक, ८-१८)