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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा मंडल की भाँति भ्लान हो गया । मुझे भी उनका भाव देख कर क्लेश हुआ। मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--'मैं कुमार की आज्ञा पालन करने का प्रयत्न करू ग !' कुमार उठे और बोले--‘तुम्हें ये दो उपहार भट्टिनी को देने हैं।' उन्होंने कोने में रखे हुए चन्दन-काष्ठ के विशाल पिटक से एक मूर्ति निकाली । मूर्सि एक काले पत्थर को काट कर बनाई गई बुद्ध- प्रतिमा थी । विनस्ति-मात्र की इस मूर्ति में कलाकार ने एक विचित्र चारुता भर दी थी । शक-नरपतियों ने अपनी बुद्ध-भक्ति के आवेश में इस देश में भारतीय और यावनी शिल्प की जो गंगा-यमुनी मूर्तियाँ तैयार कराई हैं, उन्हें मैं बिल्कुल पसन्द नहीं करता । वे न तो मूर्ति के अर्थ-पुरुष की गहराई में जाती हैं, ने प्रमेय पाटव में । एक तरफ़ उनमें यावनी प्रतिमाओं की भाँति अंग-प्रमाण की ओर बेतरह ध्यान दिया गया होता है, दूसरी तरफ़ हाथ और पैर की मुद्राओं में वाच्या की अपेक्षा व्यंग्या को प्रधानता दे दी गई होती है । जो छोटी-सी मूर्ति इस समय कुमार कृष्ण के हाथ में थी, उसकी छटा अजब थी । पहली बार मैंने ऐसा पद्मासन देखा, जिसमें चरणतल उसी प्रकार बने थे, जैसे वे वास्तव में होते है। भारतीय शिल्पियों के अनुकरण पर कुषाण-नरपतियों ने उध्वमुख चरण-तल-वाले पद्मासन ही बँधाए हैं । प्रमाण-पाटबवाली यावनी मूर्तियों में ऐसा पद्मासन ऊर्णातन्तु से सिले हुए चीनांशुक के समान बेखाप लगते हैं । इस मूर्ति में बुद्ध का मस्तक मुरिडत बनाया गया था, जब कि शक-नरपतियों की मूर्तियों में दक्षिणावर्त कुचित केश कुछ ऊँचते नहीं दिखते । मूर्ति कार ने ऐसी भूतिं बनाई थी, जिसे देख कर भान होता था कि सचमुच ही बुद्ध बैठे हैं। उनके अर्द्ध-स्तिमित नयन के ऊपर भ्र.-लताएँ धारयन्त्र की ऊर्ध्व विज्ञप्ति पथोरेखाश्रों की वक्रिमता लिए हुए नहीं थीं, बल्कि इस प्रकार छाई हुई थीं कि वे नासावंश के छत्र का काम दे रही थीं ।