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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा हाथ की अँगुलियाँ स्वाभाविक थीं। गुप्तों की मूर्ति-कला के साथ उनका कोई दूर का सम्बन्ध भी नहीं था। समाधि और निद्रा में एक भेद होता है। अधिकांश कुषाण-मूर्तियाँ उस भेद को स्मरण भी नहीं होने देतीं ; पर यह मूर्सि ऐसा ओज लिए हुए थी कि उसके रोम- रोम से जागरूकता प्रकट हो रही थी । कुमार ने कहा कि यह मूर्ति तत्रभवती को देना और कहना कि आपके भाई की यह श्रद्धापूर्वक दी हुई भेट है। फिर उन्होंने एक और मूर्ति निकाली । मैं देखकर एक ही साथ उल्लास, आश्चर्य और औत्सुक्य से झुक पड़ा। यह भट्टिनी के उपास्य महावराह की मूर्ति थी । मूर्ति को हाथ में लेकर उसे बड़े अाग्रह के साथ देखते हुए उन्होंने कहा-'इसे तुम अपनी ओर से देना। फिर कुमार ने एक छोटा-सा चन्दन-काष्ठ का खटोला निकाला । उसके चारों कोनों में चार श्वेत हस्ती थे। इन्हीं की पीठ पर यह खटोला बना हुआ था। दोनों मूर्तियों को उन्होंने उसे खटोले पर आमने-सामने बैठा दिया और मुझ से कहा---'दो आदमी इसे लेकर तुम्हारे साथ जायँगे । उन्हें तुम तौर पर से लौटा देना। इसे तुम स्वयं नाव में चढ़ा देना। देवपुत्र-नन्दिनी से कह देना कि वाभ्रव्य पर कोई विपत्ति नहीं श्रायगी । वह मेरे पास है। मैंने कुमार को अाश्चर्य मुद्रा के साथ देखा। कैसे वाभ्रव्य बचा, वह कहाँ है, अन्यान्य अन्तःपुरिकाओं का क्या समाचार है, नाग का क्या हुआ, इत्यादि प्रश्न मेरे मन उठने लगे । कुमार ने समझ लिया। बोले---- ‘उचित अवसर पर सब मालूम हो जायगा, भष्ट ! इस समय इतना याद रखो कि झूठ बोलना सर्वदा अनुचित नहीं होता । मैंने कृतज्ञता- पूर्वक सिर झुका लिया और विदा हुआ। | उस समय भगवान मरीचिमाली मध्य-गगन से पश्चिम की ओर लटक गए थे, मानो प्रकृति सुन्दरी के सीमन्त की टीका-मणि उसकी अन्त अवस्था में शिथिल होकर स्थानच्युत हो गई हो। छाया पूर्व