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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट को आत्म-कथा खम्भों पर टिका हुआ था। वह क्रमशः नतोदर भूमि को छाए हुए था। सभापति का आसन प्रफुल्ल शतदलों से सजाया गया था। सभापति की दाहिनी ओर संस्कृत के कवियों के लिए आसन निर्दिष्ट थे और बाई ओर प्राकृत और अपभ्रश के कवियों के लिए । सभापति के पीछे करणाधिपों ( अफ़सरों ) के लिए स्थान निर्दिष्ट था और दाहिनी ओर के एक पाश्र्व में तिरस्करी ( परदा ) के पीछे संभ्रान्त महिलाओं के लिए स्थान बनाया गया था। सभापनि के सामने और वाम शोर के पाश्र्व में समस्त नागरिकों के लिए स्थान निर्दिष्ट था । रंगभूमि ठीक बीच में थी । उसमें अभ्रक से मिला हुआ पिष्टातक-चूर्ण बिछा हुआ था। मैं उसका मतलब समझ गया । वह मयूर-नृत्य या पद्म-नृत्य का आधार था। कान्यकुब्ज के लोग बड़े रूढिप्रिय और चित्र-प्रवण हैं । वे मयूर और पद्म-नृत्यों-जैसी कला को अब भी जिलाए हुए हैं और उनका सम्मान भी करते हैं। मगध में मयूर-नृत्य देखने की इतनी चंचलता नहीं हो सकती । मगध इन बातों को कब का छोड़ चुका है। मेरा अपना मत तो यह है कि मयूर-नृत्य ताण्डव का सब से घटिया भेद है। ताल ही इसमें प्रधान है। पैरों को इस वेग से ताल देते-देते संचालित किया गया कि उससे कुष्टिम-भूमि के अबीर में पद्म का चित्र बन गया या मयूर का चित्र बन गया, तो कौन सी बड़ी रस-सिद्धि हो गई है मैं रस को नृत्य का प्रधान उद्देश्य मानता हूँ। पर कान्यकुब्ज के लोग विचित्र हैं। वे लास्य की अपेक्षा ताण्डव में अधिक रुचि रखते हैं। वे मनुष्य के मनोभावों की अपेक्षा उसके करण-कौशल को अधिक महत्त्व देते हैं। मैं उनकी दृष्टि को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता । फिर भी यदि मुझे समय होता, तो इस नृत्य को देखता जरूर। मैंने चारुस्मिता का नाम-यश बहुत सुना था और उसके अभिराम पद संचार की अनेक कहानियाँ भी सुन रखी थी। मेरी प्रवृत्ति उससे