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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा बने हुए मयूर या पद्म के चित्रों की ओर बिल्कुल नहीं थी; पर उसके ताल-लयान्वित पद-संचार को देखने की उत्कण्ठा अवश्य थी । मैं रुक नहीं सकता था। मुझे जाना था; पर मेरा अवारा मन महजोर घोड़े की तरह बाग़ नहीं मान रहा था। प्रेक्षाशाल अब भी पूर्ण नहीं हुई थी । कारीगर फूर्ती से काम में जुटे हुए थे। बाहर दिव्य गायकों की एक स्रोतस्विनी कमल के फूलों से बनाई जा रही थी । इन कारी- गरों की शिल्प-पटुता आश्चर्यजनक थी । मैंने बड़े प्रयत्न से अपने मन को इस शिल्प-जाल से मुक्त किया और शीघ्रता के साथ गंगा-तट की और बढ़ा । तीर के पास एक अद्भुत शान्ति अनुभूत हुई । दूर से शीकर- सिक्त वीची-वायु मेरे चित्त की परितृप्त कर रहा था और श्वेत पंकज की माला की भाँति दिगन्त के छोर तक फैली हुई मन्दाकिनी की धारा नयनों को अपूर्व शामक शोभा से स्निग्ध कर रही थी । गंगा कैलास की समस्त धवलिमा की मूर्तिमती धारा है, हर-जटा से चुई हुई चन्द्रमा के पीयूष का स्रोत है, ब्रह्मा के कमण्डलु से ढुलकी हुई वेद-विद्या का प्रवाह है, यवत्त के जनगण के मातृत्व का चिरन्तन आश्रय है। सामने जो स्फटिक-स्वच्छ जलराशि लहरा रही है, वह कितनी पवित्र है, कितनी शीतल है, कितनी मनोहर है ! अहा, यहाँ गगन-तल ही जल-रूप में मानो अवतरित हो गया है, तुषार-गिरि ही द्रवीभूत होकर मानो वर्तमान हैं, चन्द्रातप ही मानो रस-रूप में परिणत हो गया है, शिव का पवित्र स्मित ही मानो जल-धारा बन गया है, पार्वती का अपांग-वीक्षण ही मानो तरलित हो रहा है, त्रिभुवन की पुण्य-राशि ही मानो पिघल गई है, शरद्-कालीन मेघ-माला ही मानो ठिठक गई है, सरस्वती की कपुर-धवल कान्ति ही मानो द्रवित हुई है । चारुता का यह अश्रिय है, शुचिता का प्रवाह है, महिमा का स्रोत है । तट पर से क्रौंचों और कलहंसों का कल वन सुनाई दे रहा था। तीर-दुमों के