पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१३७
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाग भट्ट की आत्म-कथा । लियों से उन्होंने अस्त-व्यस्त अलक-जाल को संयत किया और भन्द स्मितपूर्वक मेरी ओर देखा । क्षण-भर में नौका में एक स्वच्छ प्रभा बह गई । मैंने मन-ही-मन उस अपूर्व कप-कवि कालिदास को याद किया | अहा, महाकवि ने जब चन्द्रमा की उदयगूढ़ किरणों से अन्ध- कार को दूरतर हटते देख कर अलक-संयमनपूर्वक नयनों को हरण करनेवाली प्राची दिग्वधू की कल्पना की थी, क्या लेश-मात्र भी सोचा था कि उनके उसे कथन के २०० वर्ष बाद गंगा की पवित्र धारा पर दयुनीक और भूलोक में एक ही साथ यह अद्भुत दृश्य दिखाई देगा। उन्हें क्या पता था कि एक दिन जब बाह्य जगत को चन्द्रमा सुधा- मलिल से पनावित करता रहेगा, चन्दन रस के अविरल साव? निर्भर से रसमय बना देगा, अमृत-सागर की बाढ़ से भुवनान्तराल को भग्ता होगा, श्वेत-गंगा के सह्स-महस्र प्रबाहों को दूर करता रहेगा और महा- वराह के दएट्रा-मडल की शोभा बिखेरता रहेगा, उस समय गंगा के प्रवाह पर गंगा के ही समान पवित्र, ज्योत्स्ना के ही समान स्वच्छ- रूपा, एक राजबाला अपने मन्द स्मित से अन्तर्जगत् को भी उसी प्रकार पवित्र, निर्मल शौर उत्फुल्ल बना देगी ! भट्टिनी को प्रसन्न देख कर मेरा हृदय आनन्द-गद्गद् हो गया । मैंने उत्साहपूर्वक कहा---

  • देवि, महावरह सहायक हैं, आप अपने सेवक पर भरोसा रखें । जिन

लोगों ने सिंह के साभार को पैरों से कुचलने की चेष्टा की थी, वे फल पायँगे । अकिंचन बाणु भट्ट को श्राप उपेक्षा-योग्य न समझे । अाज भी आर्यावर्त में कृतज्ञता का एकदम अभाव नहीं हो गया है और वाहीक और प्रत्यन्त से बर्बर हूणों को उखाड़ फेंकने वाले परम भाग- 'विक्रमोर्वशीय के निम्नलिखित श्लोक से तात्पर्य होगा :-- उदयगढ-शशांक-मरीचिभिस्तमसि दूरत प्रतिसारिते अलकसंयमनादिव लोधने हरसि हरिवहन-दिङ मुखम् ।