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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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का विश्वास था कि वह बुद्धदेव का समसामयिक था और उसी युग को कई बात कहना चाहता था; क्योंकि दीदी ने स्पष्ट ही उसके चेहरे पर एक निरीह करुण भाव देखा था ! अाहा, उस युग के स्यार भी कैसे करुणावान् होते थे ! मैं समझ गया कि दीदी को अगर छूट दी जाय, तो उस शृगाल के सम्बन्ध में एक पुराण तैयार हो जायगा और पिण्ड छुड़ाना मुश्किल हो जायगा। मैंने कहा--'दीदी, अाज विश्राम करो, स्यार की बात कल होगी ।' दीदी ने भाव-विह्वल होकर कहा--- “हाँ रे, थक गई हूँ। जा, अाज भाग जा । कल ज़रूर आना । देख, इस बार शोण नद के दोनों किनारो की पैदल यात्रा कर आई हूँ ।' मैं जैस अचरज में आ गया-'शोण नद ?'


  ‘हां रे, शोण नद ।'
  'कुछ मिला है, दीदी ?'
  ‘बहुत कुछ। कल अाना ।'
  मैं पचहत्तर वर्ष की इस बुढिया के साहस और अध्यवसाय की बात सोच कर हैरान था । उस समय उठ गया । आहार के समय एक बार लौट कर फिर आया । सोचा, इस समय दादी को घर पर भोजन के लिए ले चलूँ । पर देवा, दीदी सामने मैदान में ध्यानस्थ बैठी हैं ।

आहा, चाँदनी इसी को तो कहते हैं । सारा आकाश घने नील वर्ण के अच्छोद सरोवर की भाँति एक दिगंत से दूसरे दिगंत तक फैला हुआ था। उसमें राजहंस की भाँति चन्द्रमा धीरे-धीरे तैर रहा था । दूर कोने में एक-दो मेघ-शिशु दिनभर के थके-माँदे सोए हुए थे। नीचे से ऊपर तक केवल चाँदनी ही चाँदनी फैली थी और मैदान में दीदी निश्चल समाधि की अवस्था में बैठी थी। पास ही खड़ा एक छोटा-सा खजूर वृक्ष सारी शून्यता को समता दे रहा था। मैं चुपचाप खिसक गया ।

  दूसरे दिन मैं शाम को दीदी के स्थान पर पहुँचा। नौकर से मालूम